क्यों राजा दशरथ ने दिया था अपने दामाद के साथ धोखा
परिचय- यह कथा राजा दशरथ की कोई संतान ना होने के कारण देवताओं ने रंभा को भेजकर श्रृंगी ऋषि लाने के लिए कहा देवों के राजा ( इन्द्र ) आज्ञा दी और अद्भुत रूपवाली ( रम्भा नामक ) अप्सरा ( वहाँ से ) चली । वह तत्क्षण महावन में आ गयी । उस स्थान पर ( उस समय ) विभाण्डिक (ऋषि) नहीं थे; वहाँ शृंगी अकेले बैठे हुए थे । ६ । जिन्हें समूचा विश्व एक-सा ( समान ) था, स्त्री-पुरुष ( के भेद ) का भान नहीं था, ऐसे वे शृंगी ऋषि स्वच्छ आसन पर ध्यान लगाये हुए है; केवल ब्रह्म में वे तल्लीन थे । ७ । वह तेजस्विनी, रूप के प्रकाशवाली अप्सरा उस आश्रम के पास आयी । टेढ़ी थीं। उसके स्तन पुष्ट थी ।८। वह मृगनयनी थी; उसकी भौंहें धनुष्य-सी थे वह सिंह की सी पतली कमरवाली । वह चन्द्रमुखी और चम्पा के समान वर्णवाली अप्सरा है | वह मन्द-मन्द मुस्कुराती है । वह गति में (मानो) हिरनी है । उसके हाव-भाव अतिशय आनन्द ( रस ) उत्पन्न करते हैं और स्तन-मण्डल को हिलाते हैं । ९ । उसने शरीर पर आभूषण तथा नव-नव रंग के वस्त्र, हार और चोली पहनी है । उस कामिनी ने हाथ में वीणा ली है । जिसके गायन (के प्रभाव ) से सूर्य स्थिर हो जाता है, शेषनाग अपार गति, से डोलने लगता है, ऐसीं वह रम्भा मधुर स्वर में गा रही है । ( उसे सुनकर ) मृगों का समूह इकट्ठा हुआ और वे मृग तल्लीन हो गये, उनका भान भूल गया । १०-११ । वह गायन मुनि के कानों पर आया, तो उनकी आँखें खुल गयी, उनका ध्यान छूट गया । वे मृगी से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए उस नाद से वे मुनि मोहित हो गये । १२ । उठकर वे दरवाज़े के पास चले आये तो उन्हें सुन्दर रूपवती रम्भा दिखायी दी। उन्हें मन मे ऐसा लगा कि मुझे पवित्र करने हेतु ये कोई मुनि ( ही ) आये (है)
| १३ | उन्हें पुरुष और स्त्री ( के भेद ) का भान नही है । उनकी दृष्टि में सब एक समान है । मन में उल्लसित होकर वे उस ( रम्भा ) के पास आये । १४ । प्रदक्षिणा करके वे उसके पाँव लगे । के आलिंगन करने पर वे ( मन में उसके प्रति ) अनुरक्त हो गये । ( उन्होंने उस स्त्री कहा—) — महाराज, यह दिवस धन्य है ! यह घड़ी धन्य है, जब तुम महानुभाव पधारे । १५ । आओ, तुम्हारा वेश सुन्दर है। तुम कहाँ से आये ? तुम किस देश में रहते हो ? किस वन मे तप करते हो ? तुम्हारे कौन गुरु है ? तुम किस मंत्र का जाप करते हो ?' । १६ तब रम्भा हँस कर बोली — 'यह मै रम्भा हूँ । स्वर्ग मेरे तप का स्थान है । - कामदेव (मेरे) गुरु है । मेरे लिए जप है मोह मंत्र का, और रति का आसन तप का तंत्र ( पद्धति ) है । १७ । हमारा प्रयोग पंचबाण (काम) का है, अंग-संयोग हमारे लिए समाधि- सुख है । उसके ऐसे वचन सुनकर ( शृंगी ) मुनि उसे वहाँ से अपने आश्रम में ले आये । १८ । ( स्त्री-पुरुष समान के प्रति एक-से) भाव से मुनि ने उसका स्वागत एवं आदर सम्मान करके उसे आसन दिया । ( उसके ) पास में वन्य फल लाकर उसे दिये और कमण्डलु (में) भरकर पानी दिया । १९ । ( और कहा - ) ' हे मुनि, (ये) फल खाओ ।' तब ( वह ) अप्सरा बोली – ' मैं ये फल नहीं खाती । देखो, हमारा सच्चा फल यह है ' । २० । ऐसा कहकर उसने पक्वान्न निकाल लिया, जो घी में पकाया हुआ (और) अमृत के समान ( मधुर ) था । उसने उसे मुनि शृंगी को खिलाया । उसमें उन्हें स्वाद आया - अर्थात् उन्हें वह रुचिकर लगा और वे प्रसन्न हो गये । २१ । ( उन्होंने कहा - ) हे मुनिवर, तुम्हारा अवतार ( जीना) धन्य है, जो तुम ऐसे फल का आहार नित्य करते हो । हे मुनि, मुझे अपना तप, आसन और योग का ( स्वयं ) भोग (प्रयोग) करके दिखाओ । २२ । अब तुम मेरे आश्रम में रहो । हम ( तुम्हारी ) नित्य सेवा करेगे ' । इस प्रकार रम्भा ( उनके ) आश्रम में रही । वह कामकला का उपक्रम आरम्भ करती है । २३ । वह निश्चय ही मुनि शृंगी को अपने अमृत ( के समान मधुर ) भोजन का आहार कराती । वे (दोनों) एक आसन ( शय्या ) पर सोया करते । ( इससे ) मुनि का मन चंचल हो गया | २४ । वे आसन ( शय्या) पर रति सुख का आनन्द मनाते । उन्हें काम व्याप्त ( अति प्रभावित ) कर गया और उनकी शान्ति को नष्ट कर गया । ईश्वर की माया बलवती होती है । उससे वे मुनि योग, समाधि, ध्यान भूल गये । २५ । इन्द्रियों का समूह बलवान् होता है। उसने सुन्दर ( सरल ) मन को मुग्ध-मोहित कर डाला । अतः वे मुनि स्त्री में एकाकार ( एकात्म ) हो गये और ( इस प्रकार ) जगत् के व्यवहार को समझ गये । २६ । इस प्रकार कितने ही ( बहुत ) दिन बीत गये, तो विभाण्डिक मुनि ( लौट) आये | ( तब ) रम्भा ने माना कि मैंने स्वयं ( इनके ) पुत्र को भ्रष्ट किया (है), अतः ये मुझे शाप देगे । २७ । ऐसा जानकर वह ( उनके ) सामने आयी और उनके चरणों में सिर नवाकर रही । ( उसने कहा – ) 'स्वामी, परमार्थ (कल्याण) की कामना करने वाली मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ | २८ | मुनि (विभाण्डिक ) ने कहा- 'हे स्त्री' तुम कौन हो ? किस कारण से यहाँ आयीं ? ' ( तब ) उस स्त्री ने कहा - ( महाराज, सुनो । अयोध्या के दशरथ राजा हैं । उनके (कोई ) पुत्र उत्पन्न नहीं ( हुआ) है, इसलिए ( उन्हें ) यज्ञ करना है। बृहस्पति ने ( उनसे) कहा कि शृंगी ऋषि को लिवा ले जाओ और उनसे यज्ञ कराओ । २९-३० । ( तब ) मुझे इन्द्र ने आज्ञा दी । अतः शृंगी को मेरे साथ में भेज दो ' । , इतना वह कह ही रही थी कि शृंगी दौड़ते हुए (वहाँ) आ गये । ३१ । वे मुनि विभाण्डिक के उल्लासपूर्वक पाँव लगे और बाद में प्रकट रूप में बोले - 'पिताजी, समाचार सुनो । ये मुनिवर बड़े ,
इस तरह रंभा के जाल में फसते चले गए ऋषि श्रृंग
महान् हैं । ३२ | योग, आसन, साधना वाले ( – के जानकार) हैं, वे अद्भुत रुचि वाले फल लाये हैं ' । तब मुनि ने ध्यान धारण करके देखा तो उन्हें भान हो गया कि पुत्र भ्रष्ट हो गया है | ३३ | उन्होंने सोचा यदि इस स्त्री को शाप दूँ तो दुःख से यह पुत्र मरेगा । विभाण्डिक तो सर्वज्ञ थे । उन्होंने मन में ऐसा विचार किया । ३४ | भगवान् अवतरित होने वाले हैं, इसलिए पुत्र को ले जाने दूं । यह पुत्र यज्ञ कराएगा तो इस महाभाग की निर्मल कीर्ति हो जाएगी । ३५ । ऐसा विचार कर मुनि बोले- 'पुत्र सुनो, मैं तुमसे ( यह ) वचन कहता हूँ । आज तुम रम्भा के साथ जाओ और राजा दशरथ का कार्य ( सम्पन्न ) करो । ३६ । पुत्रेष्टि यज्ञ ( सम्पन्न ) कराओ । मन में धीरज रखकर जाओ ' विभाण्डिक के वचन सुनकर रम्भा शृंगी मुनि को ले चली । ३७ ।
रम्भा मुनिवर शृंगी को अयोध्या में ले आयी । शृंगी को देखकर दशरथ आनन्दित हो गये और उन्होंने ( उनका ) स्वागत किया ।
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