सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बजरंग बाण कब और क्यों और किसे करना चाहिए?

बजरंग बाण कब और क्यों और किसे करना चाहिए? जब मुश्किल में हों प्राण, बजरंग बाण का पाठ पूरी श्रद्धा से करें। जब आप भयंकर मुसीबत से घिरे हो परेशानियों से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा हो नौकरी में भयंकर मुश्किल हो, नौकरी छूट गई हो या छूटने वाली हो तंत्र मंत्र से किसी ने बाधा पहुंचाई हो संकट में कभी भी बजरंगबाण पढ़ सकते हैं , संकट से तुरंत मुक्ति दिलाता है बजरंगबाण अगर ऐसा है तो श्री हनुमान जी का सबसे शक्तिशाली बजरंग बाण आपकी सहायता कर सकता है। कहा जाता है कि जहां बजरंग बाण का पाठ किया जाता है, वहां हनुमान जी स्वयं आ जाते हैं। बजरंग बाण क्यों है अचूक ? पवनपुत्र श्री हनुमान जी श्रीराम के भक्त हैं। आप श्रीराम का नाम लें और हनुमान जी आपकी मदद के लिए न आएं ऐसा हो ही नहीं सकता नहीं सकता, क्योंकि बजरंग बाण में हनुमान जी के आराध्य प्रभु श्रीराम की सौगंध दिलाई गई है। इसलिए जब आप श्रीराम के नाम की सौगंध उठाएंगे तो हनुमान जी आपकी रक्षा करने जरुर आएंगे। बजरंग बाण में श्रीराम की सौगंध इन पंक्तियों में दिलाई गई है- भूत प्रेत पिशाच निसाचर। अगिन बेताल काल मारी मर, इन्हें मारु, तोहिं ...

क्यों विभीषण भगवान जगन्नाथ की पूजा करते हैं| क्या विभीषण अमर हैं| विभीषण अमर हैं तो कहां हैं?

 सप्त चिरंजीवी यानी कि सात अमर लोग।  

इन सप्तचिरंजीवी में एक हैं महाराज विभीषण आखिर वह जिंदा हैं तो कहाँ हैं। आइये जानते हैं। विभीषण जी को कौन नहीं जानता है कि विभीषण जी रावण के भाई थे। और विभीषण जी की मदद से ही रावण का वध हुआ था भगवान श्रीराम ने खुद विभीषण जी को चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। वैसे सभी लोगों को यह पता होगा लेकिन जानना यह है कि विभीषण जी रहते कहां हैं।





लेकिन वहां तक पहुचने से पहले आज हम यह जानेंगे किई विभीषण जी आजतक जीवित कैसे हैं। दरअसल रामायण की कथा तो आपलोग जानते हैं कि रावण ने जब सीता माता का हरण कर लिया था तब उन्हें अशोक वाटिका में रखा था और अशोक वाटिका जो माता सीता की एक मात्र सखी बन गयी थी वह थी विभीषण जी की पुत्री त्रिजटा जो रावण के अशोक वाटिका की प्रमुख पहरेदार थी। त्रिजटा ही माता सीता को युद्ध के परिणामो को बहुत अच्छे ढंग से बताती थी। त्रिजटा के रहने से ही सीता माता को थोड़ा सा सुकून था अशोकवाटिका में। आपको पता है कि विभीषण जी एक राक्षस कुल के थे लेकिन भगवान नारायण के बहुत बड़े भक्त थे इसलिए उनकी पुत्री उनसे कम तो थी नहीं। इसलिए उसने माता सीता का पूरा ख्याल रखा था। जब विभीषण जी के द्वारा बताए गये तरीके से रावण का वध हो गया तो भगवान श्रीराम जी उनपर बहुत प्रसन्न हो गए। तो श्री राम का भक्त होने के नाते वह लंका से श्रीराम से मिलने अयोध्या को जाया करते थे। क्यों कि विभीषण जी श्रीराम के बिना रह नहीं पाते थे। जब बहुत समय बीत गया तब भगवान को अपने निज धाम जाने का समय आया तो विभीषण जी प्रभु से दुखी होकर कहने लगे कि हे प्रभु मैं तो आपको देखे बिना एक एक दिन किस तरह गुजरता हूँ यह तो आप जानते हैं आप सब छोड़कर और हमें भी छोड़कर अपने लोक को जा रहे हैं तो आप बताइए मैं यहां रहकर आपके दर्शन कैसे करूंगा।




तब प्रभु श्रीराम ने कहा हमारे कुल के देवता भगवान जगन्नाथ के तुम दीर्घ काल तक पूजा करोगे और कलयुग के अंत में तुम मुझमे लीन हो जाओगे। उन्होंने कहा आप मेरा दर्शन भगवान जगन्नाथ रूप में करेंगे जो एक विशाल समुद्र के किनारे एक मंदिर के रूप में होगा उसके अंदर जो मूर्ति होगी वह मेरी ही स्वरूप होगी और आप मेरी पूजा सबसे पहले करोगे। और विभीषण जी वहीं नतमस्तक हो गए और उन्होंने सोंच लिया कि आने वाले समय मे भगवान जगन्नाथ जो स्वयं श्रीराम ही होंगे और उनके दर्शन प्रातः होते रहेंगे इस लिए वह प्रसन्न हो गए। और भगवान श्रीराम विभीषण जी को बताकर अपने वैकुण्ठ धाम को चले गए। भगवान श्रीराम के वरदान स्वरूप भगवान हनुमानजी और विभीषण जी यहीं धरती पर रह गए। विभीषण जी आज भी लंका में रहते हैं। काफी लोगों को यह जानकारी है कि रोज सुबह जगन्नाथ जी प्रथम पूजा विभीषण जी ही करते हैं। आइये इस कथा के माध्यम से बताते है। प्रचीन काल की बात है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की दर्शन करने के लिए विभीषण जी हमेशा की तरह पहुचे और भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ उनको स्वयं दर्शन देते हैं। तब विभीषण जी ने उनके सामने प्रार्थना किया कि हे प्रभु इतने दिन से आपके दर्शन करने के लिये लंका से यहां रोज आता हूँ। आपसे निवेदन है कि एक बार अपने पावन कदम मेरी लंका में भी रखिये जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊं मेरी भूमि जगन्नाथ पुरी की तरह पावन हो जाये। भगवान जगन्नाथ ने तथास्तु कहकर अन्तर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद वह घड़ी आ गई जब भगवान जगन्नाथ लंका जाने वाले थे। आपको बता दें कि जगन्नाथपुरी और लंका के रास्ते मे एक मठ पड़ता है जहां पर भगवान जगन्नाथ के बहुत बड़े भक्त रहते थे जिनका नाम था बलराम दास। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान जगन्नाथ लंका के लिए निकले तो वहां उनका मठ भी पड़ा। तब भगवान जगन्नाथ ने सोंचा की मैं बलराम दास को भी दर्शन देता चलूँ। भगवान जगन्नाथ बलरामदास को दर्शन देने उसके मठ में जा पहुचे। भगवान जगन्नाथ को अपने मठ पर आए देखकर बलरामदास भावविभोर हो गए। उनके सामने नतमस्तक हो गए भगवान जगन्नाथ जी से बातें करने के बाद भगवान जगन्नाथ ने बताया कि मैं विभीषण जी को दर्शन देने लंका जा रहा हूँ। तब बलरामदास ने यह प्रार्थना की हे प्रभु आप अपने साथ मुझे भी लंका ले चलने का अवसर प्रदान करें। भगवान जगन्नाथ ने सहमति दे दी सहमति के साथ साथ भगवान जगन्नाथ ने बलरामदास को एक सुराही जैसा मटका दिया जो सोने का था और कहा जब वापस आऊंगा तब आप यह मटका मुझे दे देना

क्योंकि मैं इसे जगन्नाथ पुरी से यहां लाया हूँ भगवानदास बेहद खुश हो गए और अपनी यात्रा लंका की तरफ शुरू कर दिया। कुछ समय बाद बलरामदास और भगवान जगन्नाथ दोनों लंका पहुचे तो  विभीषण जी ने दोनों लोगों का स्वागत अपने दिल से किया। और इसके बाद विभीषण जी ने मोतियों की माला और उसके साथ एक और माला बनाया वह माला बेहद ही दुर्लभ फूलों से बनी हुई थी जिसका नाम था काली जूही के फूल जो बहुत कम जगह में मिलते हैं। दोनों मालाओं को बनाकर भगवान के गले में पहना दिया भगवान बहुत प्रसन्न हुए । और फिर लंका को और वहां के वासियों को आशीर्वाद दिया और फिर अपने धाम को निकल लिए जब वह अपने धाम पहुचने वाले थे थोड़े ही दूर बलरामदास जी का मठ भी था फिर भगवान ने बलराम दास को भी आशीर्वाद दिया और कहा जाओ हम काफी दिनों से भ्रमण कर रहे है जाओ अपने मठ में विश्राम करो। मैं अपने धाम वापस जा रहा हूँ। और बलरामदास प्रसन्नता के साथ अपने मठ में गये और विश्राम करने लगे। और मठ में सो गए जब वापस से बलरामदास की नींद खुली तो देखा कि वह मटका वहीं रह गया। यह मटका तो भगवान ने मुझे लंका जाते वक्त दिया था अरे यह तो मैं उन्हें लौटा ही नहीं पाया अब मैं इसे ना जाने कैसे लौटाऊंगा बलरामदास बहुत परेशान हो गए। और सुबह हो चुकी थी और इधर जगन्नाथ पूरी के मंदिर में हहाकार मच गया था लोग आपस में बात करते थे अरे भाई यह कैसे हो सकता है भगवान जगन्नाथ के मूर्ति के बगल का मटका कैसे गायब हो गया। सभी परेसान हो गए।

तब उस समय जगन्नाथ पुरी के एक राजा थे जिनका नाम था प्रतापरुद्र, प्रतापरुद्र जी के पास यह खबर पहुची तब प्रतापरुद्र ने सोचा कि भगवान जगन्नाथ जी का वह मटका किसी चोर ने चुरा लिया है। जब यह जंगल मे लगी आग की तरह पूरे राज्य फैल गई और जब इस बात को बलरामदास जी ने सुना तो उन्हें ज्ञात हो गया कि यह मटका भगवान जगन्नाथ जी का है। तब वह भागते हुए जगन्नाथ पुरी पहुचे और जगन्नाथ पुरी में वें महाराज प्रतापरुद्र के पास पहुच कर कहा कि यह मटका मुझे स्वयं भगवान ने दिया था। लेकिन प्रतापरुद्र को इस बात का भरोसा नहीं हुआ और उन्होंने बलरामदास को चोर समझ लिया । जब बलरामदास को चोरी का आरोप लगा तो वह रोने लगे और उन्होंने पिछली बात की सारी जानकारी राजा प्रतापरुद्र को बताया कि विभीषण जी ने किस प्रकार मोतियों की माला और काले जूही की माला भगवान जगन्नाथ को पहनाई थी। और फिर प्रतापरुद्र भाग कर जगन्नाथ जी के मंदिर में पहुंचे और जैसे ही देखा कि भगवान जगन्नाथ के गले में सचमुच वह माला टंगी हुई है। जो बलरामदास ने बताया वह सच था। उनको ऐसा लगा जैसे पैरो तले जमीन खिसक गई। और फिर राजा प्रतापरुद्र ने बलरामदास जी से क्षमा मागी। और कहा कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई कि भगवान जगन्नाथ के इतने बड़े भक्त पर मैंने ऐसा आरोप लगाया। बलरामदास जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। बलराम दास ने प्रतापरुद्र को यह भी बताया कि विभीषण जी रोज सबसे पहले आकर भगवान जगन्नाथ जी की पूजा करते हैं। यह बात आपको नहीं पता है लेकिन मुझे और विभीषण जी और भगवान जगन्नाथ जी को पता है। तब से आजतक यह मान्यता है कि विभीषण जी ही वह हैं जो तब से लेकर आजतक भगवान जगन्नाथ की सबसे पहले पूजा करके चले जाते हैं। जो मंदिर के पट खुलने से पहले क्यों कि उन्हें भगवान श्रीराम ने वरदान दिया था कि सबसे पहले तुम मेरे दर्शन करोगे। विभीषण जी को कोई भी अपने खुली आँखों से देख नहीं सकता है विभीषण जी के पास शरीर है और भगवान श्रीराम के वरदान के प्रभाव से उनकी शरीर दिव्य हो चुकी है  उनको देखने के लिए दिव्यदृष्टि किसी के पास नहीं है। उनको देखने के लिए दिव्यदृष्टि की जरूरत है । जब कभी उनकी रथयात्रा जगन्नाथ पुरी से निकलती है तो कुछ समय के लिए उनकी रथ यात्रा गरुण स्तम्भ के पास रोक दी जाती है कहते हैं कि हमेशा की तरह सबसे पहले विभीषण जी भगवान जगन्नाथ जी की पूजा करेंगे फिर रथयात्रा आगे बढायी जाएगी। इस पौराणिक कथा से यह ज्ञात होता है कि विभीषण जी आज भी इस पृथ्वी पर जीवित हैं। भगवान श्रीराम के आशीर्वाद के अनुसार वह लंका में रह रहे हैं। उन्हें कोई देख नहीं सकता है क्योंकि उन्हें दिव्यरूप प्राप्त हो चुका है। उम्मीद है कि यह हमारी पौराणिक कथा सबसे अलग जानकारी जरूर अछी लगी हुई होगी। अगर अच्छी लगी तो चैनेल को सब्सक्राइब वीडियो को लाइक शेयर जरूर करें। जय श्री राम।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

क्यों हुआ था दशरथ और शुक्रचार्य का युद्ध| देवासुर संग्राम कब हुआ था| दशरथ ने कैकेयी क्या वरदान दिया

संक्षिप्त कथा- अध्याय - १० (दशरथ द्वारा कैकेयी को वर प्रदान सतयुग का समय चल रहा था असुरों का राजा वृपपर्वा अद्भुत पराक्रमी उसने शुक्राचार्य द्वारा वृष्टिबंध नामक प्रयोग कराया । (ऐसा था। प्रयोग कि जिससे वर्षा नहीं होती, सूखा-अकाल पड़ जाता है) । १ । उन्होंने मन में गर्व करते हुए मेघों को आकृष्ट किया। इससे वारह वर्षों तक अनावृष्टि (वर्षा का अभाव ) हो गयी। इससे सव पीड़ित हुए | २ | गायें, ब्राह्मण आदि सव प्रजा अपार दुःख को प्राप्त हुई । यज्ञ-याग सब बन्द हो गये और हाहाकार मच गया | ३ | तव इन्द्र ने वृषपर्वा के साथ बहुत दिन युद्ध किया । परन्तु वह महाबली असुर जीता नहीं गया; क्योंकि उसके मस्तक पर शुक्राचार्य का ( वरद ) हस्त था । ४ । ( तदनन्तर ) ब्रह्मा ने इन्द्र से कहा - वह ( वृषपर्वा ) तुमसे नहीं जीता जा सकत्ता | यदि दशरथ को बुला लाओ, तो वह दानव पराजित हो जायगा । ५ । तब अयोध्या में आकर इन्द्र ने दशरथ राजा से याचना ( विनती) की । तब अजनन्दन दशरथ तैयार होकर युद्ध करने के लिए चले । ६ । तब कैकेयी ने कहा कि मुझे साथ ले चलो, मुझे युद्ध देखना है, मैं देखूंगी कि तुम्हारा कैसा बल है, पराक्रम कैसा है, ( यु...

क्यों किया था रावण के कौशल्या का हरण/ राजा दशरथ का विवाह/ राम की माता कौशल्या का हरण/ Adhyatm Guru

क्यों किया था रावण के कौशल्या का हरण/ राजा दशरथ का विवाह/ राम की माता कौशल्या का हरण/ Adhyatm Guru त्रेतायुग की बात जब रावण ने सभी राजाओं को जीत लिया तब उसे कोई लड़ाई करने वाला नहीं मिल रहा था तब वह ब्रम्हा जी से अपनी मौत के बारे पूछने गया था ब्रम्हा जी ने रावण से कहा कि तुम्हारी मृत्यु एक मनुष्य के हाथों होगी और उसका जन्म रघुकुल में होगा उस राजा का नाम दशरथ है उसका विवाह होने वाला है और इधर महाराज अज ने राजा दशरथ का कौशल्या के साथ  विवाह आयोजित किया था, इससे अजराज को बहुत आनन्द हो रहा था । विवाह-दिवस के वीच सात दिन बाकी हैं।  तब नारद ने आकर महाराज अज से एक बात कही राजन सुनो। मैं एक बात कहता हूँ - तुम्हारे घर में बड़ा विघ्न  होने वाला है | राक्षस रावण लंका का राजा है । वह दुर्बुद्धि  राक्षस दशरथ की हत्या करेगा । ऐसी बात मैंने वहाँ जान ली और इस बात को बताने के लिए यहाँ छिप कर (चुपचाप) आ गया । इसलिए मन में विचार कर उसकी रक्षा करो, अपने पुत्र को किसी गुप्त स्थान पर रखो। ऐसा कहकर नारद चले गये, तो अज राजा चिन्तातुर हुए । वर और वधू को हलदी उबटन आदि लगायी गयी और सोचा कि कन्य...

धनुष यज्ञ में महाराज दशरथ जी को बुलाया क्यों नहीं गया था ?| Why was Maharaj Dasaratha not invited in the bow yagya?

  धनुष यज्ञ में महाराज दशरथ जी को बुलाया क्यों नहीं गया था ? चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ जी का न जाना अथवा जनक जी द्वारा उन्हें आमंत्रित न करना कम आश्चर्य की बात नहीं। इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का कहना है कि महाराज दशरथ को इसलिए नहीं बुलाया गया था क्यों कि उन्हें श्रवणकुमार को मारने से हत्या लगी थी। परन्तु यह तर्क सर्वथा भ्रामक और तथ्य से परे है, क्यों कि महाराज दशरथ जी के द्वारा श्रवणकुमार का वध रामजन्म से भी पहले हुआ था और उनकी इस हत्या के पाप को (जिससे कि दशरथ का सम्पूर्ण शरीर काला पड़ गया था) महर्षि वसिष्ठ जी के पुत्र वामदेव के द्वारा तीन बार राम-राम कहलाकर दूर करा दी गयी थी और ये ब्रह्महत्या के मुक्त हो चुके थे। इसलिए न बुलाये जाने के कारण में यह वात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। दूसरा कारण जिसके माध्यम से मैं इस भ्रम का निराकरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ, पूज्य पितामह द्वारा प्राप्त प्रसाद स्वरूप है जो निम्ववत् है। एक राजा थे,जिनके एक ही सन्तान (पुत्र) थी। राजा ने बड़ी धूम-धाम से उसका विवाह किया परन्तु विवाहोपरान्त उस लड़के की बुद्धि पता नहीं क्यों राममय हो गयी और वह घर-बार छ...