धनुष यज्ञ में महाराज दशरथ जी को बुलाया क्यों नहीं गया था ?| Why was Maharaj Dasaratha not invited in the bow yagya?
धनुष यज्ञ में महाराज दशरथ जी को बुलाया क्यों नहीं गया था ?
चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ जी का न जाना अथवा जनक जी द्वारा उन्हें आमंत्रित न करना कम आश्चर्य की बात नहीं। इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का कहना है कि महाराज दशरथ को इसलिए नहीं बुलाया गया था क्यों कि उन्हें श्रवणकुमार को मारने से हत्या लगी थी। परन्तु यह तर्क सर्वथा भ्रामक और तथ्य से परे है, क्यों कि महाराज दशरथ जी के द्वारा श्रवणकुमार का वध रामजन्म से भी पहले हुआ था और उनकी इस हत्या के पाप को (जिससे कि दशरथ का सम्पूर्ण शरीर काला पड़ गया था) महर्षि वसिष्ठ जी के पुत्र वामदेव के द्वारा तीन बार राम-राम कहलाकर दूर करा दी गयी थी और ये ब्रह्महत्या के मुक्त हो चुके थे। इसलिए न बुलाये जाने के कारण में यह वात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। दूसरा कारण जिसके माध्यम से मैं इस भ्रम का निराकरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ, पूज्य पितामह द्वारा प्राप्त प्रसाद स्वरूप है जो निम्ववत् है।
एक राजा थे,जिनके एक ही सन्तान (पुत्र) थी। राजा ने बड़ी धूम-धाम से उसका विवाह किया परन्तु विवाहोपरान्त उस लड़के की बुद्धि पता नहीं क्यों राममय हो गयी और वह घर-बार छोड़कर जंगल में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करने लगा। एक दिन भयंकर तूफान आया। उस भंयकर तूफान में एक हंस का जोड़ा अपने युगल जोड़े से विछुड़ गया, जिसमें से हंसिनी किसी तरह से उसी वृक्ष पर आ पहुँची, जिसके नीचे वह लड़का तपस्या कर रहा था, थोड़ी देर बाद हंस भी उसी भंयकर तूफान में अपनी प्रिय पत्नी को खोजता हुआ उसी पेड़ पर पहुँच गया। हंसिनी ने हंस को तूफान झेलकर अपने पास पहुंचा हुआ देखकर कहा। प्रिय ! तूफान थम जाने पर मुझे ढूँढते ऐसी जल्दी भी क्या थी ? इस पर हंस ने व्यंग्यामक उत्तर देते हुए कहा, "मैं इस राजा के लड़के के समान नहीं हूँ जिसने अपनी नव विवाहिता पली को छोड़कर तप करना शुरू कर दिया है इसकी तपस्या की पूर्ण नहीं हो सकती, पत्नी का विरह में जलना इसकी तपस्या का बाधक है। लड़का हंस की सारी बातें सुन रहा था। वह तुरन्त वहाँ से उठा और सीधे अपनी श्वसुराल को चल दिया। रास्ते में उसे एक गाय जो कीचड़ में फंसी थी तथा जिसे निकालने के लिए कुछ ऋषिगण प्रयास कर रहे थे, दिखाई दी। ऋषियों ने उस लड़के को भी सहयोग के लिए पुकारा, परन्तु उस लड़के ने किसी की भी न सुनी और अपनी ही धुन में श्वसुराल के मार्ग पर चलता चला गया। इस पर ऋषिगण क्रोधित हो गये और उस लड़के को शाप दे दिया कि जिसके विरह और याद में तू इतनी व्यग्रता से जा रहा है, वह तुझे जैसे देखेगी अथवा उसकी नजर पड़ते ही तुम गधे बन जाओगे। इन वचनों को उस लड़के ने तो नहीं सुना परन्तु वहाँ जाने पर जब रात्रि में शयनागार में आरती उतारने के बाद इनकी पत्नी ने इन्हें देखा तो उसकी नजर पड़ते ही वह गधे के स्वरूप में परिवर्तित हो गये। बड़ी विकट स्थित थी इनकी। पली लोकलाज को ध्यान में रखते हुए इन्हें रात्रि में ही खिड़की के रास्ते से गधे के रूप में ही लेकर घर से बाहर निकल गयी। उस लड़की को अपने पति के गधे के रूप में होने का कारण पता नहीं था। परन्तु पति सेवा की भावना के कारण वह उस गधा के रूप में परिवर्तित अपने पति की सेवा पूर्ववत् करती रही, मजदूरी करके जो कुछ भी प्राप्ति होती थी, उसमें से अधिकांश उस गधे को खिलाकर बाकी को स्वयं खाकर संतोष करती थी। चूंकि वह श्राप के कारण परिवर्तित था अतः वह घास-फूस तो खाता नहीं था। इसलिये वह उस गधे स्वरूप में परिवर्तित अपने पति का कुछ विशेष ही ध्यान रखती थी।
इस तरह से बहुत दिन व्यतीत हो गये। मजदूरी करते हुए वह कन्या काशीपुरी को पहुँची। वहाँ पर काशी नरेश एक मंदिर का निर्माण करा रहे थे। उसने वहीं पर मजदूरी प्रारम्भ कर दी। एक दिन काशी नरेश की पत्नी ने इस कन्या को गधे के साथ आते जाते देखकर उसे अपने पास बुलाया और उससे पूछ-ताछ की। सम्पूर्ण स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के वाद में काशी नरेश की पत्नी ने यह आदेश दिया कि आज से इस कन्या और इस गधे को पेटभर अनाज खाने के लिए बिना श्रम किये दिया जाये। सारी व्यवस्था उसी दिन हो गयी और कन्या वहीं रहने लगी।
सायंकाल राजा के महल में आने पर रानी ने सभी बातें राजा से बतायी तथा निवेदन किया कि क्या यह गधे से पुनः पुरुष में बदल नहीं सकता ? राजा ने इस संबंध में काशी के बड़े-बड़े श्रेष्ठतम विद्वानों, पंडितों, ज्योतिषयों को बुलाकर पूछा, तव सव ने यही कहा कि महाराज यह व्यक्ति मनुष्य से गधा शापवश बना हुआ है, यह पुनः मनुष्य वन सकता है परन्तु शर्त यह है कि यदि कोई व्यक्ति गंगा जी के प्रवाह को किसी तरह से एक क्षण के लिए रोक दे और उस जल के द्वारा इसका परिमार्जन किया जाय, वह जल इस पर छिड़का जाय तो यह गधे से पुनः मनुष्य हो सकता है। बस क्या था ? राजा ने देश - विदेश के राजाओं को गंगा के प्रवाह को एक क्षण के लिए रोकने के आशय का पत्र लिखकर बुलाने का आदेश दिया। काशीनरेश के आदेश का पालन तत्क्षण हुआ और अनेक राजा भी आये, गंगा के किनारे पर पण्डितों सहित उस गधे को लाया गया सारी व्यवस्था भी की गयी परन्तु आये हुए कोई राजा गंगा के प्रवाह को रोकने में सफल न हो सके।
इधर महाराज दशरथ जी के पास जब पत्र पहुँचा और उन्होंने पत्र पढ़ा तो वे बहुत दुःखी हुए उन्हें चिन्ता सवार हो गयी। वे सोचने लगे कि आज तक कहीं भी मेरी पराजय नहीं हुई परन्तु आज लगता है कि मैं पराजित हो जाऊँगा, क्यों कि गंगा जी के वेग को रोकना इतना आसान नहीं था। इसी सोच में दशरथ जी रात्रि के 12बजे तक जगते रहे और उन्हें इसी चिन्ता में नींद नहीं आयी। अन्त में राजा दशरथ अपने इस चिन्ता के निवारणार्थ सरयू जी के पास गये और सोचा कि सरयू जी से ज्यादा गंगा जी के संबंध में भला और कौन जानता होगा क्यों कि दोनों विष्णुपुत्री हैं एक नखजा है, तो दूसरी नयनजा, एक की उत्पत्ति विष्णु के नाखून से है तो सरयू की उत्पत्ति भगवान के नेत्रों से, अतः सरयू जी मेरे पूर्वजों द्वारा लायी भी गयी हैं इसलिए उनसे कुछ भेद प्राप्त हो सकता है। इस आशा में वे रात्रि में सरयू के तट पर पहुँचे। जिस समय दशरथ जी सरयू के तट पहुंचे तो उस समय सरयू के घाट पर एक डोम पहरा दे रहा था। राजा के ध्यान लगाते ही उसने न पहचान पाने की की स्थिति में राजा के ऊपर एक बाँस से प्रहार कर दिया। जब राजा पीड़ा से चिल्लाने लगे तो पहचानने पर वह उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, महाराज! आप के इतनी रात को आज सरयू के तट पर आने का क्या कारण है ? राजा ने समस्त प्रसंग से उसे अवगत कराया और अपनी परेशानी बतायी। राजा की बात सुनने के बाद डोम ने राजा से तुरन्त कहा कि महाराज आप इस छोटी सी बात के लिए इतना अधिक चिन्तित क्यों हैं? आप चिन्ता न करें यह काम मैं कर दूंगा। बस आप प्रातः काल अपना दिव्य रथ और सारथी दें तथा इस आशय का एक पत्र दें कि मेरी तबीयत कुछ खराब हो गयी है और मैं नहीं पहुँच पा रहा हूँ, अतः काशीनरेश जी ! जो कुछ आपका कार्य हो आप इस पत्रवाहक से करवा लें। राजा ने उसकी इच्छानुसार सम्पूर्ण व्यवस्था प्रातः काल करवा दी। सुमंत्र सारथी के रूप में रथ लेकर चले। इधर सभी अब मात्र दशरथ जी के ही आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, क्यों कि सभी तो परास्त हो चुके थे अब दशरथ ही शेष थे और सबकी आशाएँ उन्हीं पर टिकी थीं। तब तक दशरथ जी के रथ की पताका दूर से लोगों को दिखायी पड़ी। सभी परिवर्तित कर चिल्लाये, महाराज दशरथ जी आ गये अब काम पूरा हो जायेगा, अब चिन्ता की कोई बात नहीं है। जब रथ नजदीक पहुँचा तो डोम रथ से नीचे उतर गया और पत्रिका को हाथ में लेकर हिलाता हुआ चला।' पत्र हिलाते हुए किसी अन्य को आता हुआ देखकर सभी पुनः हतोत्साहित हो गये कि महाराज दशरथ नहीं आये उनकी जगह कोई उनका पत्रवाहक समाचार लेकर आया है, अतः अब काम न हुआ ही जानो। डोम ने आगे बढ़कर राजा को दशरथ जी की पत्रिका दी। राजा ने जब पत्रिका पढ़ी तो यद्यपि वे निराश तो हो ही चुके थे फिर भी दशरथ जी के पत्रानुसार उन्होंने गंगा तट पर सम्पूर्ण व्यवस्था पूर्ण कराकर डोम को गंगा तट पर ले गये, वहाँ पर सम्पूर्ण राजा, विद्वान, ऋषि, ब्राह्मण आदि नगरवासी उपस्थित थे। सबके बीच में उस दशरथ जी द्वारा प्रेषित डोम ने गंगा जी को प्रथमतः प्रणाम किया और फिर उसने गंगा जी से कहा, "गंगे! यदि मैंने तुम्हारी सेवा हर तरह से किया हो, यदि कुछ शक्ति मुझ में हो तो तुम अपने प्रवाह को रोक दो। इस प्रकार से कहकर उसने अपना दाहिना पैर गंगा की धारा के मध्य में रख दिया। सभी दंग रह गये। यह क्या ? गंगा जी का आधा जल इधर और आधा जल उधर। सभी उसकी जयजयकार करने लगे और पण्डितों ने विभिन्न मन्त्रोच्चार से उस अवरुद्ध जल की छीटों से उस गधे के रूप में परिवर्तित राजा के पुत्र को प्रच्छालित करके उसको मनुष्य के रूप पुनः दिया। डोम की इस महान शक्ति को देखकर वहाँ पर उपस्थित समस्त राजा, ऋषियों, पण्डितों ने एक स्वर से उसकी सराहना करते हुए कहा
अवध नगर के डोमवा, और नगर के भूप ।
इनकी सरवरि को करै, जो बेंच खात हैं सूप।।
इस महान कार्य को सम्पादित कर डोम अयोध्या चला आया। काशीनरेश ने अयोध्या नरेश को प्रशस्ति-पत्र भेंट किया तथा उस कन्या को उसके पति के साथ तमाम धनधान्य के साथ उसके ससुराल भेजवा दिया। राजा भी अपने पुत्र और बहू को प्राप्त कर अतीव प्रसन्न हुए। उल्लेखनीय है कि उक्त कार्य के लिए महाराज जनक भी आये थे परन्तु असफल रहे थे और डोम द्वारा किये गये कार्य को देखा भी था। आज जनक जी सोच रहे हैं कि यदि दशरथ जी ने आज भी कोई बहाना बना दिया और खुद की जगह किसी डोम या दूत को भेज दिया, तथा उसने आकर शिव के धनुष को तोड़ दिया, तो क्या मैं अपनी पुत्री का विवाह किसी डोम या दूत के साथ कर दूँगा ? मैं ऐसा नहीं कर सकता। इसी संदेह की भावना में पड़कर दशरथ जी को महाराज जनक जी ने बुलाया नहीं था, जनक जी यह भी जानते थे कि महाराज दशरथ शिव जी के अनन्य भक्त हैं संभव है वे शिव के धनुष को तोड़ने के लिए न आयें।
दशरथ जी के न आने का एक कारण यह भी था कि यह स्वयंवर था, इसमें प्रण की घोषणा सुनकर इच्छुक राजा स्वयं ही आते थे। जनक ने किसी को भी बुलाया नहीं था। मानसकार का भी मत है कि–'देस देस के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।' दशरथ के वैसे भी तीन रानियाँ थीं उन्हें चौथेपन में चार पुत्र मिले थे, अब वे विवाह करना भी नहीं चाहते थे। अतः वे स्वंयवर में नहीं आए। किन्तु आनन्द रामायण के अनुसार जनक ने दशरथ को बुलाया था, परन्तु पुत्र वियोग से दुखी होने के कारण वे नहीं गए थे।
यदि रथ पर बैठे - बैठे ही वह वहाँ तक आता तो सभी उपस्थित राजा उसे दशरथ समझकर प्रणाम कर लेते और फिर उसकी सम्पूर्ण शक्ति समाप्त हो जाती वह श्रीहीन हो जाता, अतः इसीलिए वह रथ से उतर कर चला।
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