कौन सा ऐसा राजा था जो अपने शरीर का मांस खाने के लिए स्वर्ग से धरती पर आता था। क्यों वह अपने ही शरीर का मांस खाता था। क्या स्वर्ग में खाने के लिए कुछ भी नहीं था जो वह धरती लोक में अपने ही शरीर के मांस को खाता था।
कौन सा ऐसा राजा था जो अपने शरीर का मांस खाने के लिए स्वर्ग से धरती पर आता था। क्यों वह अपने ही शरीर का मांस खाता था। क्या स्वर्ग में खाने के लिए कुछ भी नहीं था जो वह धरती लोक में अपने ही शरीर के मांस को खाता था।
भगवान श्री राम ने एक माला जो महा ऋषि अगस्त्य ने भगवान श्री राम को वन जाते वक्त दिया था उसे अपने छोटे पुत्र लव को दे दिया । उस बहुमूल्य कंकण को पहने लव भी अतिशय शोभित हुए। तब लव ने भी उस सम्बन्ध में अगस्त्यजी से पूछा कि, यह आप को कहाँ से प्राप्त हुआ था। तब अगस्त्यजी ने कहा- एक समय दण्डकारण्य में जब मैं एक सरोवर पर स्नान करने गया तो वहाँ स्नान, नित्यकर्म आदि कर लेने के पश्चात् मैं वहाँ अल्प-क्षण लिए बैठ गया। उसी समय कोई स्वर्गीय प्राणी सैकड़ों स्त्रियों को साथ
लिए एक विमान पर बैठा हुआ वहाँ आ उतरा । वह दिव्य मालाओं को धारण किए हुए दिव्य गन्धों से चर्चित था । उसके आते ही उस सरोवर से एक भयानक दूषित दुर्गन्धपूर्ण शव निकल कर उसके तट आ लगा। तब वह स्वर्गीय प्राणी अपने विमान से निकल कर उस शव के समीप जा पहुंचा और उसके मांस को सप्रेम भक्षण किया। फिर जल पी कर अपने विमान में जा बैठा। उसी क्षण वह शव भी उस सरोवर में डूब गया । तब मैं उस विमान के समीप चला गया और उससे पूछा कि, हे दिव्यस्वरूप वाले !
४९० आनन्द रामायण थोड़ी देर ठहरो और मेरी बात का उत्तर दे कर तब आकाशगामी होओ। तुम्हारे इस कार्य को देख कर मुझे इस बात का कौतूहल हो रहा है । तुम बतलाओ कि एक स्वर्गीय प्राणी हो कर तुम इस मुर्दे का मांस क्यों भक्षण करते हो ? तब मेरे इस प्रश्न को सुन कर उसने उत्तर दिया कि, हे ब्रह्मन् ! आप ने यह बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। सुनिए, मैं अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त कहता हूँ। पूर्वकाल की बात है । विदर्भ देश में सुदेव नाम के एक राजा थे । उनके श्वेत और सुरथ नाम के दो पुत्र थे। उनमें श्वेत मैं था । राज्य भी मेरे ही हाथ में था। उस जन्म में राज्यमद से मतवाला हो कर मैंने कोई दान नहीं किया । मैं सर्वदा पाप कर्म करता ही रहा। मेरे कोई सन्तान नहीं थी। इस कारण वृद्धावस्था में अपने छोटे भाई सुरथ को राज्यासन पर बैठा कर वन में तप करने चला गया। एक समय स्नान करने के लिए मैं सरोवर पर गया तो वहाँ स्नान करते-करते मैं जल में डूब गया और मेरे प्राण पखेरू उड़ गये। फिर मैं अपनी तपस्या के बल से स्वर्गलोग जा पहुँचा । तप के प्रभाव से मेरे लिए वहाँ और समस्त वस्तुएँ प्रस्तुत थीं, किन्तु भोजन की कोई सामग्री न थी। तब मैंने इन्द्र से पूछा कि, हे देवेन्द्र ! यहाँ मेरे भोग के योग्य और तो सब वस्तुएँ उपलब्ध हैं किन्तु भोजन के लिए कुछ दिखाई नहीं पड़ता है । कहिए, इस प्रकार मुझे क्या सुखानुभूति होगी? मेरी इन बातों को सुन कर मुस्कुराते हुए इन्द्र कहने लगे- तुमने राज्य-मद में भूतल पर कोई दान नहीं किया था । बिना दिए कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ है। अतएव तुम प्रतिदिन विमान से जा कर उस मिष्टान्न से परिपुष्ठ शरीर का भक्षण किया करो । वह तुम्हारे आहार हेतु दीर्घकाल तक ज्यों का त्यों बना रहेगा और नष्ट नहीं होगा। इस प्रकार इन्द्र की बातें सुन कर मैंने पूछा कि, मुझे स्वर्ग का अन्न कैसे प्राप्त होगा? तब इन्द्र ने उत्तर दिया कि, अभी तो दण्डकारण्य मनुष्य-विहीन है । जब विन्ध्य-पर्वत की वृद्धि के अवरोधार्थ देवप्रार्थित श्रीअगस्त्यजी काशी को त्याग कर दण्डकारण्य को जायँगे, तब तुम इसी सरोवर में स्नान कर के अपना कंकण उस ऋषि को देना । कंकण के इस दान से तुम्हें स्वर्गीय अन्न की प्राप्ति होगी। इन्द्र की उस आज्ञा से ही मैं यहाँ आ कर इस मुर्दे का मांस भक्षण करता हूँ। इतने दिन हो गए, मुझे यहाँ कोई दृष्टि में नहीं आया।
आज आप ही दृष्टि आए हैं । मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि, आप अगस्त्य ऋषि हैं । आज आप के दर्शन कर मैं निष्पाप हो गया ।अब कृपा कर आप मेरे इस कंकण को स्वीकार कीजिये। अगस्त्यजी ने कहा- इस प्रकार कह कर उस स्वर्गीय प्राणी ने अपने कंकण उतार कर हमें दे दिए और प्रसन्नतापूर्वक विमानारूढ़ हो स्वर्गगामी हुआ । तब से वह शव उस सरोवर में कभी नहीं उतराया । मैं भी स्वर्ग के दिव्य अन्न पाने लगा । हे लव! जिस कंकण को मैंने दण्डकारण्य में पाया था, उसे रामचन्द्र को दिया था। उसी को रामचन्द्रजी ने आज तुम्हें दिया है । इस तरह यह कथा यहीं समाप्त होती है ज्यादा जानकारी के लिए अध्यात्म गुरु यूट्यूब चैनल जरूर देखें।
🙏🙏अस्तु जय श्री राम 🙏🙏
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