नारद जी ने क्यों दशरथ की माता की हत्या की थी/ नारद ने इंदुमती को मारकर किया पाप/ एक अप्सरा की कथा
यथासमय रघु को पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम अज रखा गया। उसके विद्या प्राप्त कर युवक होने पर, उसे सेना के साथ विदर्भराज की बहिन इन्दुमती के स्वयंवर में भाग लेने के लिए भेजा गया। .
अज की सेना पर एक जंगली हाथी ने आक्रमण करके सैनिकों को विचलित कर दिया, लेकिन अज के बाण से आहत वह गज एक दिव्य पुरुष बन गया और अपना उद्धार करने के लिए कृतज्ञतास्वरूप उसने अज को एक सम्मोहन अस्त्र प्रदान किया, जिसके प्रभाव से बिना हिंसा और रक्तपात के शत्रु पर विजय प्राप्त हो जाती है।
अज सेना सहित जब विदर्भ पहुंचे, तो विदर्भराज ने उनका हार्दिक स्वागत किया और उन्हें सम्मानित एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में अपने भवन में ठहराया।
अगले दिन प्रात:काल जब निर्धारित समय पर अज रंगशाला में पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि इन्दुमती के प्रत्याशी अनेक राजा अपने वैभव का प्रदर्शन करते हुए अपने-अपने आसनों पर बैठे हुए हैं। अज भी अपने लिए निश्चित आसन पर जाकर बैठ गये।
थोड़ी देर में जयमाल अपने हाथ में लिये, रूप-गुण सम्पन्न और अपने यौवन से युवकों को लुभाती इन्दुमती स्वयंवरभवन में उपथित हुई। द्वाररक्षिका सुनन्दा ने वहां उपस्थित मगधनरेश परन्तप, अंगदेश के राजा, उज्जयिनीनरेश, अनूप देश के शासक, मथुरा के अधिपति सुषेण तथा कलिंग देश के राजा हेमांगद का विस्तृत परिचय दिया और इन्दुमती से उनके सम्बन्ध में उसकी इच्छा पूछी। इन्दुमती के आगे बढ़ने को उसके उन राजाओं को अस्वीकार करने का संकेत समझकर, अन्ततः वह रघुवंशी अज के पास पहुंची। अज के रूप, गुण और वैभव आदि का परिचय पाकर इन्दुमती उन पर मुग्ध हो गयी और उसने अज के गले में जयमाल डालकर उनका वरण कर लिया। नगरवासियों ने इन्दुमती की पसन्द को अत्यन्त सराहा और अज तथा इन्दुमती की जोड़ी को चांद और चांदनी के समान बताया।
विदर्भनरेश महाराज भोज ने अपने महल में आकर अपने पुरोहितों से इन्दुमती और अज का विधिपूर्वक विवाह सम्पन्न कराया और दहेज में अश्व, रथ, गज तथा स्वर्णाभूषण दिये।
इन्दुमती द्वारा अस्वीकृत ईर्ष्यालु राजा अज से बलपूर्वक इन्दुमती को छीनना चाहते थे, किन्तु इन्द्राणी की उपस्थिति में वे विदर्भ में तो किसी प्रकार का उत्पात करने का दुस्साहस न कर सके, परन्तु उन्होंने मार्ग में अज को घेरने की योजना बना ली।
विदर्भनरेश से विदा लेकर चले कुछ दुष्ट राजाओं ने इन्दुमती को लेकर अयोध्या जाते अज पर धावा बोल दिया। अज ने इन्दुमती को सुरक्षित स्थान पर छिपाकर शत्रुओं का डटकर सामना किया। दोनों ओर से भयंकर युद्ध और भारी रक्तपात हुआ। अनेक राजाओं के साथ अकेले जूझने और विजय-प्राप्ति को कठिन देखते हुए अज ने प्रियंवद गन्धर्व से प्राप्त सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग किया, जिसके प्रभाव से सभी सैनिक चेष्टाशून्य होकर सो गये।
अज ने इन्दुमती को सभी विरोधी राजाओं को सम्मोहित दिखाकर, उस पर अपनी अजेय वीरता की छाप अंकित कर दी। इस प्रकार विजयी होकर अज अयोध्या लौटे। कुछ समय पश्चात् अपनी वृद्धावस्था को देखकर महाराज रघु ने राज्य का दायित्व अज को सौंप दिया और स्वयंतपके लिए वन में जाने की तैयारी करने लगे।
अष्टम सर्ग
को भी बढ़ाया। अज के अनुरोध पर महाराज रघु भी समीप के वन में कुटिया बनाकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात् वह दिवंगत हो गये। समय बीतने पर इन्दुमती ने पुत्र-रत्न को जन्म दिया, जिसका नाम 'दशरथ' रखा गया।
एक दिन महाराज अज इन्दुमती के साथ अपने उपवन में विहार कर रहे थे कि हरिगुणगान करते नारदजी की वीणा से छूटी एक पुष्पमाला इन्दुमती पर आ गिरी,जिसके स्पर्शमात्र से वह क्षणमात्र में ही निष्प्राण हो गयी। इन्दुमती के असामयिक निधन पर अज बहुत समय तक अत्यधिक दुखी होकर विलाप करते रहे। अन्ततः सचिवों और पुरोहितों के समझाने पर इन्दुमती का अन्तिम संस्कार कर दिया गया। | ।
उन दिनों अपने आश्रम में एक यज्ञ में दीक्षित होने से महर्षि वसिष्ठ तो महाराज अज को सान्त्वना देने न आ सके, हां, उन्होंने अपने एक योग्य शिष्य को अपना प्रतिनिधि बनाकर महाराज के पास भेजा।
सन्देशवाहक तपस्वी ने इन्दुमती के पूर्वजीवन का वृत्त सुनाते हुए कहा कि वह मूलतः एक अप्सरा थी और तृणबिन्दु नामक ऋषि के शाप के कारण वह मानवी रूप में उत्पन्न हुई थी। उसे मिले शाप की अवधि समाप्त हो गयी थी, अतः उसे जाना ही था। महाराज को उसके उद्धार पर प्रसन्न होना चाहिए। रुदन करने पर मृत आत्माओं को कष्ट पहुंचता है।
वसिष्ठजी के प्रतिनिधि तपस्वी द्वारा प्रबोधित किये जाने पर महाराज अज स्वस्थ होकर राज्यकार्य में मन लगाने लगे। आठ वर्ष किसी प्रकार बिताकर महाराज अज ने अवध का राज्य अपने पुत्र दशरथ को सौंप दिया और स्वयं गंगा-सरयू के तट पर तपोलीन हो गये। कुछ समय पश्चात उन्होंने शरीर त्याग दिया।
दशरथ ने अवध का राज्य प्राप्त कर उसे बड़ी कुशलतापूर्वक संभाला। उन्होंने अपने चारों दिशाओं के शत्रुओं का इस प्रकार सफ़ाया कर दिया कि उनका विरोध करने का किसी में भी साहस शेष नहीं रहा। उन्होंने इन्द्र की सहायता करके उसके शत्रुओं को भी बुरी तरह पछाड़ा।
दशरथ ने दिग्विजय द्वारा पर्याप्त धन एकत्र किया और उसे अपनी प्रजा के कल्याण पर व्यय किया। उन्होंने अनेक यज्ञ किये और ब्राह्मणों को बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं देकर प्रसन्न किया।
🙏🙏अस्तु जय श्री राम 🙏🙏
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