क्यों एक पुरुष के साथ किया था अगस्त्य ऋषि ने विवाह| अगस्त्य ऋषि का जन्म कैसे हुआ| अगस्त्य को कुम्भज ऋषि क्यों कहते हैं?
मित्रावरुण नामक ब्रम्हावेत्ता धीरमुनि समुद्र तट पर रहते थे, वे तप, अनुष्ठान किया और जप करते रहते थे | २ | ( तट पर ) सागर की लहरें आतीं, तब उनकी अपनी वस्तुएँ बह जातीं । किसी दिन आसन, वस्त्र ( या ) कमण्डलु, तो किसी दिन पात्र ही (बह) जाता । ३ । इससे मुनि समुद्र पर झुंझला उठे ( फिर ) वे बहुत क्रोधायमान हो गये । ( तो उन्होंने निश्चय किया कि) अब मै एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करूंगा, जो समुद्र के पानी को पी डालेगा । ४ । तदनन्तर उन्होंने मिट्टी का एक कुम्भ वना लिया और उसमें अपना शुक्र ( वीर्य ) डाल दिया। उन्होंने उस कुम्भ को वहाँ एकान्त स्थान में सम्हाल कर रख दिया । ५ । जब पूरे (नौ) महीने हो गये, तब उस कुम्भ को तोड़कर उसमें से एक पुत्र निकल आया । उसकी अद्भुत आकृति, अर्थात् डीलडौलवाले शरीर में यज्ञोपवीत और कटिसूत्र (भी) था।
उसका नाम ' अगस्त्य ' रखा । यथा-काल ) वह पुत्र बड़ा हो गया । ( फिर ) पिताजी से आज्ञा माँगकर ( फिर वह पावन काशी क्षेत्र में आ गया ।
उसने समस्त विद्या पढ़ ली । अनन्तर उसका शरीर यौवन को प्राप्त हो गया। उसने मन में सोचा, अब कोई सुन्दर कन्या मिले तो व्याह कर लूं । ८ । यह (उधर ) कान्यकुब्ज देश का एक राजा था । उसके बहुत कन्याएँ थीं । मुनिराज ने वहाँ आकर एक कन्या की माँग की । ९ । तब राजा ने कहा ' अभी यह छोटी है; जिस समय वरण करने योग्य ( विवाह-योग्य ) हो जाएगी, तब आप आइए । हे मुनिवर ( तव ) मैं निश्चय ही एक कन्या दूंगा' । १० । ऐसा वचन सुनकर वे अगस्त्य मुनि लौट गये । तदनन्तर थोड़े ही समय में राजा ने स्वयम्वर सम्पन्न करते हुए उस कन्या का विवाह करा दिया ।
तब वह (राजा) अगस्त्य को तो भूल गया । ( इससे एक-एक करके ) उसने सब कन्याओं का विवाह करा दिया।
( कन्याएँ) जहाँ-तहाँ राजपुत्रों को ( विवाह में ) देकर राजा निवृत्ति को प्राप्त हो गया | १२ | कितने ही दिनों के पश्चात् अगस्त्य मुनि कन्या ले जाने के लिए ( राजा के पास ) आ गये । (फिर) उस राजा ने उनकी पूजा-अर्चा तो की; (फिर भी ) वह मन में भय को प्राप्त हो गया । १३ । तब अगस्त्य ने कहा - 'हे राजा, आपने जो मेरे लिए कही थी, वह कन्या लाओ ' । ऐसा सुनकर राजा चिन्तातुर हो गया और वह प्रासाद में चला गया । १४ । उसने रानी से समस्त वृत्तान्त कह दिया- 'मैं स्वयं भूल जो गया हूँ; अब यदि मुनि से कन्या के विषय में ना कहूँ, तो वे निश्चय ही अभिशाप देंगे ' | १५ | वह सती- शिरोमणि रानी वोली- 'हे महाराज, धैर्य रखो । बारह वर्ष का एक पुत्र है । उससे काम बन जाएगा । १६ । तब अपना कन्या का वेश बनाते हुए उसे स्त्री के आभूषण तथा वस्त्र पहना दो । विधि के अनुसार कन्या दान करो और मुनि को वह दो । १७ । जब वे अगस्त्य ऋषि फलयुक्त मंत्र पढ़कर संकल्प करेगे और उसे कन्या समझ कर उसको स्वीकार करेगे, तब वह नर से नारी वन जाएगा । १८, ( इसके अनुसार ) राजा उस दिन पुत्र को ( कन्या रूप में) सजाकर सभा में ले आया ।
उस कन्या के अद्भुत वेश को देखकर मुनिवर मन में आनन्दित हो गये । १९ । तब राजा ने समस्त भोग (विलास की सामग्री ) सहित बहुत सम्मान पूर्वक ( मुनि को ) कन्या प्रदान की।
( इधर ) अगस्त्य मुनि ने 'स्वस्ति कहकर कन्या का दान
( स्वीकार कर) लिया । २० । ( जब ) उन्होंने मन्त्र पढ़कर हाथ थाम लिया, ' तब वह ( राजपुत्र) तत्क्षण नारी-रूप हो गया । राजा मन में आनन्द को प्राप्त हो गया और (तव ) जय-जयकार हो गया । २१ । (फिर) मुनिवर अगस्त्य ने आशीर्वाद दिया । उनके मन की कामनाएं पूर्ण हो गयीं । नाम है ? (तत्पश्चात् ) उन्होंने राजा से पूछा- "इस कन्या का क्या ।२२ तो फिर विचार करके और सुन्दर अर्थ प्रकट करते हुए वह बोलें. - नाम पुरुष की मुद्रां ( रूप ) लुप्त हो गयी है, अतः इसका लोपामुद्रा " है " । २३ । ( तदनन्तर ) अगस्त्य उसे लिये हुए काशी में आ गये और उन्होंने गृहस्थाश्रम ( का जीवन ) आरम्भ किया | वे तपस्वी, निर्मल. अर्थात् निष्पाप ब्राह्मण अपने नित्य कर्म करते रहे । २४ ।। अब गिरिवर विध्याचल को हिमालय का पुत्र ही कहिए । वह वसिष्ठ के साथ वैर धारण करके अगस्त्य की शरण में आ गया । २५ ( यह सुनकर ) श्रीरामचन्द्र ने कहा- ' सुनिए हे सुतीक्ष्ण, मुझे वह ( कथा ) अवश्य कहिए! वसिष्ठ, और विश्वामित्र का फिर वैर किस-लिए हो गया ? । २६ । तो सुतीक्ष्ण ने कहा - ' हे रघुपति, सुनिए । एक समय वसिष्ठ ऋषि उत्तर देश में रहते थे। उन्होंने ( तब ) एक कामदुग्धा नामक कामधेनु अपने आश्रम में रखी थी। २७ । एक दिन वह गाय़ वन में चरने के लिए गयी थी । उस वन में एक बड़ी गुफा थी - ( वस्तुतः ) वह एक बहुत ! गहरी खाई थी।
कामदुग्ध उस खाई में गिर पड़ी । उसे ( बाहर) आने में ) रुकावट पड़ गयी | तब मुनिवर वसिष्ठ उसे खोजने के लिए निकले, तो देखते ( - देखते) वहाँ आ गये ॥ २९ ॥ तदनन्तर उस कामधेनु ने अपना दूध निःसृत कर दिया, तो निश्चय ही वह खाई भर गयी । उस दूध में तैरकर वह गाय बाहर निकल गयी । ३० । ( इधर ) वसिष्ठ ने विचार किया कि यह खाई खोटी है, उसे मैं निश्चय ही पाट दूंगा।
समझिए, एक पर्वत लाकर डाल दूँ, तो वह निश्चय ही भर जाएगी । ३१ । हिमालय के बहुत पुत्र हैं, उनमें से किसी एक को लाऊँगा । उसे लाकर इस खाईं में डाल दूँगा और वह असाधारण दुःख टाल दूंगा | ३२ | फिर वसिष्ठ उस समय हिमालय के घर ही आ गये और अपना वृत्तान्त कहकर उन्होंने उसका एक पुत्र मॉग लिया । ३३ । तव हिमालय ने वहाँ विध्याचल को ( वसिष्ठ के साथ जाने की ) आज्ञा दी । (तदनुसार) वह वसिष्ठ के साथ तत्क्षण चल दिया। ( फिर भी ) वह मन में सोचता रहा । ३४ । वे मुनि उस खाई में भर डालने के लिए मुझे ले जा रहे हैं । ऐसा समझकर वह उस समय वसिष्ठ को छोड़कर भाग गया । ३५ । (और) वह अगस्त्य की शरण में आ गया । (इधर ) वसिष्ठ ने मन में विचार किया - अब अगस्त्य का विरोध कौन करे ? ( हिमालय का ) कोई दूसरा पुत्र लाऊँगा । ३६ । (अतः) पीछे मुड़कर मुनिवर वसिष्ठ ( फिर ) हिमालय के घर आ गये ( और बोले –) ' भाई, तुम्हारा वह पुत्र मुझसे शत्रुता करके भाग गया है । ३७ । इसलिए मुझे दूसरा ( पुत्र ) दो, जो सरल स्वभाव वाला हो और जिससे मेरा काम बन जाए। फिर ( हिमालय का ) दूसरा एक पंगु पुत्र था । उसका नाम था आबू । ३८ । हिमालय ने तत्क्षण वह दिया, तो मुनि अगस्त्य उसे लेकर चल दिये। उन्होंने आबू को खाईं में डाल दिया, तो उनका मन प्रसन्न हो गया । ३९ । अब विंध्याचल ऐसा वैर सुतादण वाणा बालिय तमा रावव घरज्या मन ४७ ।
( धारण) करके अगस्त्य के पास आ गया ( और बोला ) मैंने
( आप को ) वचन दिया, आप जो कहिए, सो करूंगा वह इस प्रकार उनका दास होकर रहा था।
अनन्तर वह अगस्त्य का शिष्य हो गया और वह दक्षिण देश में रह गया । लक्ष योजन ऊँचा वह पर्वत महा अभिमानी रूपवाला था । ४१ । इस प्रकार से ( अभिमान - पूर्वक) उसने अतिशय ऊँचा बढ़ना आरम्भ कर दिया, तो स्वर्ग में अन्धकार हो गया । तब इंद्र ने अगस्त्य के पास आकर (विध्य) पर्वत-सम्बन्धी समाचार कह दिया । ४२ । तब अगस्त्य स्वयं वहाँ से ( विध्य) पर्वत के समीप आ गये, तो साष्टांग नमस्कार करते हुए वह पृथ्वी पर पड़ गया और यथा अवकाश सोया रहा । ४३ । तब अगस्त्य ने कहा विध्याचल, तुम अब सोये रह जाओ । यदि बिना मेरी आज्ञा के उठोगे, तो तुम्हें शाप देकर जला डालूँगा । ४४ । तदनन्तर उस दिन , से वह यहाँ इस दण्डक वन में रहा है । अगस्त्य भी अपना आश्रम बनाकर पत्नी सहित इस स्थान पर रह गये हैं।
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