पूर्वकाल । में एक समय श्रीशिवजी ने ( एक ) यज्ञ सम्पन्न किया | तब महाभाग श्रीविष्णु, ब्रह्मा तथा सब देवता
उपस्थित हो गये । ८ । सव महान ऋषि कैलाश मे आ गये- वहाँ मिल गये, उपस्थित हो गये । दीक्षा ग्रहण करके श्रीशिवजी बैठ गये। उन्होंने यज्ञ आरम्भ किया । ९ । वहाँ देव, मुनिवर, सिद्ध, चारण, सव लोकपति, ब्रह्मा, विष्णु आदि देव यज्ञ ( स्थान ) में बैठ गये । १० । पूर्णाहुति और पूजा के समय वहाँ उमाजी आ गयीं । उन्होंने अद्भुत साज-शृंगार, वस्त्र, चोली अंग में धारण किया ( था ) । ११ ।,, तब उस समय हवा चली ।, ( इंधर ) उमाजी पूजन करती हैं। तब ( हवा से उन ) सती के अंग पर से वस्त्र खिसक गया और उनका शरीर निरावरण हो गया । १२ । उमाजी के उस अंग को देखकर ब्रह्माजी मन में व्याकुल हो गये । वे परमेष्ठी ब्रह्मा कामातुर हो गये (और) देह-भान भूल गये । १३ ।
विधाता ( ब्रह्मा ) ने ( उमाजी को) बुरी दृष्टि, से देखा, यह सबको दिखायी दिया । तव देव मुनिवर, विष्णु, शिव सब उनसे यों कहने लगे।
१४ । 'हे ब्रह्माजी, तुम यहाँ से उठ ( जा ) कर दूर बैठो। तुमने सती उमाजी पर बुरी दृष्टि की ( बुरी दृष्टि से देखा ), तुम बहुत पापी हो गये । १५ । ( यह सुनकर ) प्रजापति ब्रह्मा मन में बहुत लज्जा लाते ( अनुभव करते ) हुए पछताते हैं । वे देवों, मुनिवरों, और श्रीविष्णु से (यों) दीन वचन बोले । १६ । 'हे मुनिवरो ! अब (मुझे) ) । ।. सब मिलकर दण्ड दो । हे स्वामी ! ( मुझ पर ) अनुग्रह करो ।' अनन्तर सब ने मिलकर विचार किया और न्याय ( संगत ) वचन कहा । १७ । हे विधाता ! सब तीर्थों और सब तत्त्वों का सार मिलाकर ( इकट्ठा कर उसमें ) स्नान करो, तो तुम बहुत ही शुद्ध हो जाओगे' । १८ । फिर ब्रह्मा ने सब तीर्थो का सार इकट्ठा किया |
सब तत्त्वों का तत्त्व लेकर, ( उन्हें ). निचोड़कर पानी निकाल लिया । १९ । • जितनी पवित्र वस्तुएँ हैं, जो-जो पवित्र औषधियाँ हैं, उन सबका इस प्रकार सार लेकर उन्होंने कमंडल भर लिया । २० । अनन्तर ( उसमें ) स्नान करके प्रजापति ब्रह्मा उस समय पावन, शुद्ध हो गये । ( उनका ) सारा दोष दूर हो गया; तब जय-जयकार हो गया । २१ । स्नान करने के पश्चात् वह समस्त जल कमंडल में लेकर ब्रह्मा सत्यलोक में गये ( और उसे ) उन्होंने पवित्र स्थान पर रख दिया ।
२२ । कितने ही ( बहुत ) दिन बीत गये तो बाद में श्रीविष्णु वामन रूप ( में अवतरित ) हो गये । वे बलिराज के घर आ गये; राजा ने उन्हें भूमि दान में दी । २३ । तब श्रीविष्णु पृथ्वी को भरने ( व्याप्त करने) के लिए विश्वरूप हो गये। ( अर्थात् ) श्रीमहाराज विष्णु । विराट् रूप में विशाल हो गये और उन्होंने बलिराजा को छल लिया ( धोखा दिया ) | २४ | (उनका) बायाँ पाँव पाताल में और दायाँ पाँव (जहाँ) सत्यलोक ( है उसी) में था । श्रीविष्णु के उन चरणों को देखकर ब्रह्मा मन में आनन्दित हो गये । २५ । सारों का सार जो पहला जल कमंडल में था, उस जल से उस समय विधाता ने श्रीविष्णु के चरणों का प्रक्षालन किया ( धोया ) | २६ । वह जल बहुत वृद्धि को प्राप्त हो गया - उसका पार कहने में नहीं आता । प्रजापति ने ( श्रीविष्णु के चरणों का ) पूजन किया | ( तब ) जय-जयकार हो गया । २७ । वह चरण-जल अति पावन हो गया । उसका नाम 'गंगा' पड़ गया । श्रीविष्णु के पद-स्पर्श से वह जल अधिक सुन्दर हो गया । २८ । जिस प्रकार मुमुक्षु ( मुक्ति का अभिलाषी ) मुक्त गुरु से मिलता है और (उससे ) पूर्णकाम हो जाता है, उसी प्रकार श्रीविष्णु के चरण-नख के स्पर्श से., गंगा-जल पावन होकर गंगा नामक नदी (भी) पवित्र हो गयी । २९ । इस प्रकार गंगाजी 'विष्णु चरणजा' ( श्री विष्णु के चरणों से उत्पन्न ) हो गयीं । वे सत्यलोक ही में रहीं । (फिरं) ब्रह्मा ने बहुत स्तुति की, जिसका फल एवं माहात्म्य अपरिमित है । ३० । इस प्रकार गंगाजी प्रकट ( उत्पन्न ) हो गयीं; और ब्रह्म (सत्य) लोक में रहीं । वे जिस प्रकार पृथ्वी पर आ गयीं, उसका विस्तार ( पूर्वक वर्णन ) मैं अब करता हूँ | ३१ ।
विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं—' हे दशरथंकुमार श्रीराम ! सुनो, जिस प्रकार गंगाजी पृथ्वी - तल में (पर) आ गयीं, उसका विस्तार ( पूर्वक वर्णन ) मैं करता हूँ ' । ३२ । विश्वामित ऋषि ने कहा- 'हे रघुराज ! सुनो । मैं ( गंगा के बारे में एक ) पवित्र और उत्तम फलदायी कथा कहता हूँ । पूर्वकाल में तुम्हारे कुल में सगर नामक ( एक ) राजा हो गये । १ । उनके शुभमंना ( पवित्र मनवाली) दो रानियाँ थीं, जिनके (किसी) ऋषि के (आशिष ) वचन के फलस्वरूप पुत्र ( उत्पन्न ) हो गये । एक रानी के साठ हज़ार पुत्र हो गये, तो एक (दूसरी) के एक ( मात्र ) । २ । उस पुत्र का सुन्दर नाम था अन्य साठ हज़ार पुत्रों के नाम कौन वताए ?
अत्यधिक सद्धर्मी सगर राजा ने सुन्दर अश्वमेध यज्ञों का आरम्भ किया । ३ । जव असमंजस । निन्यानबे यज्ञ पूर्ण हो गये, तो उसने सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया। ( तब ) इन्द्र को मन में यह चिन्ता ( अनुभव ) हुई कि यह मेरे इन्द्रासन ( इन्द्र पद ) को लेगा । ४ । इन्द्र उस स्थान पर अदृश्य रूप में आया और उसने ( उस ) घोड़े का अपहरण कर लिया। पूर्व समुद्र ( के तट ) पर कपिल मुनि का आश्रम था ; ( जहाँ ) वे पूर्णब्रह्म के साक्षात्कार के लिए तपस्या करते हैं, ( थे ) । ५ । जो व्यक्ति (उनके ) तप का भंग करता है (था), वह जलकर भस्म हो जाता है ( था ), उस स्थान पर घोड़े को बाँधकर इन्द्र स्वर्गलोक में चला गया । ६ । ( तदनन्तर ) सगर राजा के (वे) साठ हजार पुत्र स्वर्ग, मृत्यु और पाताल में, पर्वतों, नदियों, सरोवरों, वन-जालों में स्थान-स्थान पर अश्व की खोज करते हैं (थे) । ७ । वे महायोद्धा तथा अभंग अर्थात् अजेय वीर हैं ( थे), जिनके शरीर बज्र के समान थे। उन्होंने अति बहुत आघात करके पृथ्वी को खोद डाला । उससे सात समुद्र हो गये है ( बने हैं ) 1८। ठीक से खोज करने पर वे थक गये, परन्तु उन्हें यज्ञ का घोड़ा नहीं मिला । उस समय उन्हें नारद मुनि मिले। उन्होंने ( सगर के पुत्रों ने) उनसे ( यह ) बात कही । ९ । तो ' पूर्व समुद्र के तट पर कपिल मुनि के सुन्दर आश्रम में ( इन्द्र ने ) घोड़े को बाँधा ( है ) ' ऐसा कहकर नारद मुनि स्वर्गलोक में गये । ( तदनन्तर )
सगर के पुत्र वहाँ (कपिला - श्रम के पास ) आ गये । १० । उन्होंने उस स्थान पर अश्व को देखा । (वहाँ) कपिल मुनि ध्यान धारण करके बैठे हैं (थे ) | जब उन्होंने घोड़े को बाँधा हुआ देखा, तो वे क्रोध करके बोले । ११ । 'अरे दाम्भिक, चोर, अज्ञान (नासमझ ) ! घोड़े को बाँधकर (अब ) ध्यान धारण करता है !'
उन्होंने अत्यधिक कठोर वचन ( और भी ) कहे, तो ( कपिल ) मुनि का ध्यान टूट ( भंग हो ) गया । १२ । उन्होंने (कपिल ने) तत्काल आँखें खोल दीं, मानो वे प्रलय की अग्नि की ज्वालाएँ ही थीं । उस ज्वाला में ( वे ) कुमार जल गये । ( इस प्रकार ) वे साठ सहस्र ( सगर - ) पुत्र भस्म हो गये।
१३ । सगर राजा ने ( पुत्रों की ) राह देखी, वे नहीं (लौट) आये तो वे चिन्तित हो गये । असमंजस के ( एक ) पुत्र रत्न पुत्र ( जब ) था, जिसका नाम था अंशुमान । १४ । ( अपने ) दादा से आज्ञा माँग कर, (अपने) चाचाओं के प्रति प्रेम करनेवाला वह ( अंशुमान ) तलाश करने चल दिया। चाचाओं को खोजता हुआ वह बिना किसी विरोध के समुद्र तट पर आ गया । १५ । उसे कपिल मुनि वैठे हुए दिखायी दिये। उसने निर्मल ( शुद्ध ) मन से ( उनकी ) स्तुति की। भगवान् कपिल ( इससे ) प्रसन्न होकर बोले 'माँगो, माँगो ! मैं वरदान देता हूँ । '१६ | तो उत्कट इच्छा सहित अंशुमान बोला- 'अश्व दीजिए जिससे यज्ञ पूर्ण हो जाए । मेरे चाचा अवगति को प्राप्त ( हो गये) हैं, उनकी सद्गति ( का उपाय ) बताइए ।' १७ । तब कपिल मुनि (यह ) बात बोले –' हे पुत्र, अपना घोड़ा ले जाओ। जिन्होंने मेरे ध्यान को भंग कर दिया, वे जलकर भस्म हो गये हैं । १८ । (जब ) सत्यलोक से गंगा आएगी, और उसके जल से ( उनका ) भस्म स्पर्श करेगा, तव वे उद्धार को प्राप्त हो जाएँगे । इसलिए निश्चयपूर्वक गंगा को ले आओ ' । १९ । कपिल मुनि की ( यह ) पवित्र वाणी अंशुमान ने सुनी और (अपनी) बुद्धि से उसपर विचार किया । सगर के पुन वलवान ( थे) और (जहाँ) उनका भस्म पड़ा हुआ था, वहाँ एक कुएँ में उसे अंशुमान ने डाल दिया; ( ( तदनन्तर ) घोड़ा लेकर वह ( अपने ) नगर में आ गया । उसने राजा से समस्त बात कह सुनायी । उसे सुनकर राजा ने अश्रुपात कर दिया (आँसू बहाये ) | २०-२१ । अंशुमान को राज्य देकर, राजा ( सगर ) तपस्या करने के लिए वन में गये । राजा का पुत असमंजस था, वह तो पहले ही वन में गया है ( था ) | २२ | ( तव ) अंशुमान राज्य करता है ( था ) | वह कुलधर्म तथा नीति के अनुसार कार्य करता है ( था ) । उसके एक पुत्र हुआ । उस महाबलवान पुत्र का नाम दिलीप था । २३ | अंशुमान ने दिलीप को राज-गद्दी दी और वह (भी) वन में ( तपस्या के लिए ) गया है ( था ) । वह महाराजा गंगा की प्राप्ति के हेतु तप करने के लिए ध्यान धारण करके बैठ गया । २४ । उसने बहुत दिन तपश्चरण किया; परन्तु गंगाजी नही आयीं, तो वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । इधर राजा- दिलीप उन्नति को प्राप्त हो गया । उसके भगीरथ नामक ( एक ) पुत्र हो गया । २५ । ( यथासमय ) दिलीप ने भगीरथ को राज्य सौंप दिया और वह गंगाजी की प्राप्ति के हेतु तपःकर्म करने के लिए गया । बहुत दिन तक गंगाजी नहीं आयीं; तदनन्तर राजा दिलीप मृत्यु को प्राप्त हो गया । २६ । भगीरथ ने यह बात जान ली कि गंगामाता नहीं आ रही हैं ।
( उसने सोचा ) इसलिए मैं निश्चय , ही उन्हें इस स्थान पर लाऊँगा, तो ही मेरा भगीरथ नाम ( ) है | २७ । उस समय वह तप करने के लिए वन में चला गया । जिस मेरु पर्वत के दक्षिण में ( साक्षात् ) सुख की राशि ( के समान ) मानसरोवर है और जहाँ मयनाकर पर्वत है, वहाँ स्वर्ण-भूमि है | उस स्थान पर भगीरथ राजा ने बेजोड़ उग्र तप का आचरण किया ।
उस तप ने स्वर्ग में भूमि को हिला दिया (कॅपा दिया ), तो राजा भगीरथ के ध्यान में आकर गंगाजी ने कहा- 'हे राजा ! मैं आती हूँ - यह निश्चय समझो । (9 ( परन्तु ) मेरी धारा को धारण कौन करेगा ? ३० । उसे झट से खोज निकालो, नहीं तो भूमि को भेदकर मैं पाताल में चली जाऊँगी । गंगाजी के ऐसे वचन ( शब्द ) सुनकर राजा ने शिवजी की आराधना की । ३१ । तो शिवजी ने कहा- 'सुनो हे दिलीप के पुत्र भगीरथ ! मैं गंगाजी की धारा को धारण करूंगा।' तब सुर सरिता गंगाजी वहाँ उतर गयीं, तो उनकी धारा शिवजी की जटा में पड़ गयी । ३२ । ● उस समय गंगाजी ने अभिमान किया: (अभिमान पूर्वक विचार किया ) कि शिवजी के साथ (भगीरथ को) मैं पाताल में डालूंगी । शिवजी ने इसका विचार मन में किया (और) गंगाजी को (अपनी) जटा में उलझा दिया । ३३ । (जटा से) सुरसरिता गंगाजी नहीं निकल पायीं । शिवजी की ऐसी प्रभुता है । (तव) राजा भगीरथ ने (शिवजी का ) बहुत स्तवन किया, तो गंगाजी की धारा चल पड़ी । ३४ । मेरु पर्वत के मस्तक ( शिखर ) पर वह धारा पड़ी । उसका वेग अपार था । वहाँ से वह तीन खण्डों में विभक्त हो गयी और तीनों लोकों में वह प्रचण्ड धारा चल दी । ३५ । वहाँ स्वर्गलोक में उनका (गंगाजी का ) नाम ' सुरसरिता ' है, पाताललोक में वह ( उनका नाम ) 'भोगावती ' है और धरा ( पृथ्वी तल ) पर वे भागीरथी ' नाम से आयीं । उसको देखकर राजा प्रसन्न हो गया । ३६ । गंगाजी कहती हैं —— मैं तुम्हें पूर्णकाम कर देती हूँ । चलो पितरों का स्थान दिखाओ । ( इसपर ) रथ में राजा आगे बैठ चला और
( उसके ) पीछे गंगाजी का प्रवाह चलता है (था ) | ३७ । पर्वतों को फोड़ती हुई वह धारा चलती है ( थी ) । उससे प्रचंड आवाज़ होती है ( थी ) | तब मार्ग में एक बड़े मुनि ध्यान धारण करके बैठे थे । ३८ । (उन्हें देखकर) राजा कहता है—' हे मुनि ! आप यहाँ क्यों बैठे (हैं) ? गंगाजी आएँगी, तो उनमें वह जाएंगे। यह सुनकर मुनि ने अंजली भरकर गंगाजी का जल पी डाला । ३९ । ( इससे ) राजा को बहुत चिंता हुई । उसने मुनिवर का स्तवनं किया, तो उसने उस स्थान पर अपने घुटने में से ( बाहर ) उस ( धारा ) को बाहर निकाल दिया । इसलिए ( गंगाजी का ) ' जाह्नवी ' नाम पड़ गया । ४० । ( तदनन्तर ) गंगाजी समुद्र में गयीं और उस समय भस्म - कूप को ( पानी से ) भर डाला गंगाजी के स्पर्श से सगर - पुत्रों का उद्धार हो गया और वे सद्गति को प्राप्त हो गये । ४१ । विश्व में जय-जयकार हो गया । मुनि अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हो गये । गंगा के चंद्राकार तट की रमणीय शोभा थी अनेक मुनियों ने (वहाँ ) आश्रम ( तैयार ) किये । ४२ | गंगाजी के तट पर अनेक ( तीर्थ ) क्षेत्र और (पवित्र) स्थान (तैयार ) हो गये । उन्होंने पृथ्वी-तल का स्थान पवित्र कर दिया । विश्वामित्र कहते हैं—' हे राम ! सुनो - इस प्रकार मनोहारिणी गंगाजी ( पृथ्वी - तल पर ) आ गयीं । ' ४३ | ( गिरधर कवि कहते हैं कि ) जो कोई यह कथा सुनते हैं, वे नर-नारी पवित्र हो जाते हैं । उनका जन्म-मरण का दुःख घट जाता है और वे गंगा स्नान के फल को प्राप्त हो जाते हैं । ४४ ।
वे गंगा स्नान के फल को प्राप्त हो जाते हैं । पापी जन पवित्र हो जाते हैं । विश्वामित्र ने यह कथा कही, तो उसे सुनकर श्रीरघुराज आनन्दित हो गये । ४५ । यह कथा यहीं तक थी अब मैं पंडित धर्मेन्द्र कुमार तिवारी अब आपसे लेता हूँ विदा
🙏🙏।।जय श्रीराम।।🙏🙏
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