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बजरंग बाण कब और क्यों और किसे करना चाहिए?

बजरंग बाण कब और क्यों और किसे करना चाहिए? जब मुश्किल में हों प्राण, बजरंग बाण का पाठ पूरी श्रद्धा से करें। जब आप भयंकर मुसीबत से घिरे हो परेशानियों से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा हो नौकरी में भयंकर मुश्किल हो, नौकरी छूट गई हो या छूटने वाली हो तंत्र मंत्र से किसी ने बाधा पहुंचाई हो संकट में कभी भी बजरंगबाण पढ़ सकते हैं , संकट से तुरंत मुक्ति दिलाता है बजरंगबाण अगर ऐसा है तो श्री हनुमान जी का सबसे शक्तिशाली बजरंग बाण आपकी सहायता कर सकता है। कहा जाता है कि जहां बजरंग बाण का पाठ किया जाता है, वहां हनुमान जी स्वयं आ जाते हैं। बजरंग बाण क्यों है अचूक ? पवनपुत्र श्री हनुमान जी श्रीराम के भक्त हैं। आप श्रीराम का नाम लें और हनुमान जी आपकी मदद के लिए न आएं ऐसा हो ही नहीं सकता नहीं सकता, क्योंकि बजरंग बाण में हनुमान जी के आराध्य प्रभु श्रीराम की सौगंध दिलाई गई है। इसलिए जब आप श्रीराम के नाम की सौगंध उठाएंगे तो हनुमान जी आपकी रक्षा करने जरुर आएंगे। बजरंग बाण में श्रीराम की सौगंध इन पंक्तियों में दिलाई गई है- भूत प्रेत पिशाच निसाचर। अगिन बेताल काल मारी मर, इन्हें मारु, तोहिं ...

विश्वामित्र के पिता कैसे बने चांडाल| विश्वामित्र के पिता का क्या नाम था| रामायण की रोचक कथा


विश्वामित्र के पिता कैसे बने चांडाल
विश्वामित्र के पिता का क्या नाम था| रामायण की रोचक कथा

विश्वामित्र के पिता कैसे बने चांडाल| विश्वामित्र के पिता का क्या नाम था| रामायण की रोचक कथा

गौतम ( नामक ) एक ऋषि थे। उन्होंने न्यायशास्त्र की रचना की। गौतम के एक भले शिष्य थे । उनका नाम गाधि था | १३ वे चार वेदों और छः शास्त्रों के वेत्ता थे, महाज्ञानी तथा प्रमाणभूत तपस्वी थे । उन्होंने ( एक समय) सुन्दर अनुष्ठान ( सम्पन्न ) किया, तो उस समय भगवान् विष्णु प्रकट हो गये | १४ | श्रीविष्णु ने कहा 'हे मुनिराज ! मॉग लो । जो माँगोगे, आज वह ( तुम्हें ) दूंगा ।' ( इसपर ) वे मुनिवर बोले-' हे मुरारि ! मैं यह माँगता हूँ कि तुम मुझे अपनी माया दिखाओ । १५ । ( तव ) श्रीनारायण हँसकर ( यह ) वचन बोले-' माया को परम दारुण समझो । वह तुम्हें आबद्ध करेगी। यह है तो मिथ्या, पर ( बहुत ) कठोर है । १६ । जैसे रस्सी में सर्प ही का भास होता है, सीप में चाँदी की झलक होती है, जैसे लकड़ी के खूंटे का चोर बनता है, स्वप्न में प्राप्त सुख-दुख की तीव्रता होती है, ये सब जिस प्रकार मिथ्या हैं, वैसे ही माया ( वस्तुतः ) मिथ्या है, परन्तु वह बहुत दु.ख देती है; वह ज्ञान, ध्यान का हरण कर लेती है । वह आदि और अन्त में नहीं है, वह तो मध्य में स्फुरित हो जाती है । १७-१८ । 

उसने मार्कण्डेय जैसे (वड़े-बड़े मुनियों) को भ्रम में डाला, ब्रह्मा आदि इसके जाल में आ गये (फँस गये )

वह तुम्हारी बुद्धि को भ्रमित कर डालेगी - मेरी माया ऐसी निर्दय है । १९ । हे मुनिवर ! उसमें क्या देखना है ?' तब (इसपर ) गाधि ने ( यह ) वचन कहा – ' जब मैं माया से दुःख प्राप्त करूँ, तव तुम मुझे सम्भाल लो ।' २० । तथास्तु श्रीनारायण चल दिये । ' कहकर अनन्तर कुछ दिन व्यतीत हो गये। गंगा नदी के तट पर (एक) सुन्दर वन में वह पुरुष और स्त्री-गाधि ऋषि और उनकी स्त्री - आश्रम बनाकर रहते हैं (थे) । २१ । एक समय मुनि मध्याह्न के अवसर पर गंगा में स्नान करने गये । जिस समय वे पानी में पैठ गये, उसी समय उनके प्राण व्याकुल हो गये । २२ । उस समय उनकी अकाल (में) मृत्यु हुई तत्काल यमदूत ने उन्हें पकड़ लिया और वे ( यमदूत) उन्हें यमपुर में ले गये; (और) वहाँ ( उनको ) नरक कुण्ड में डाल दिया । २३ । कुछ समय उन्होंने नरक का भोग किया और बाद में वे चण्डाल के रूप में अवतरित हुए । उस ( चण्डाल ) का नाम कंटक था, कर्म हिंसा था । स्त्री पायी । २४ । युवावस्था को प्राप्त कर उसने परम सुन्दर उसने उस समय गृहस्थाश्रम ( का जीवन ) आरम्भ किया। उसके परिवार ( अनेक ) पुत्र-पुत्रियाँ हो गये । उनका भरण पोपण करने के लिए वह वटमारी करके लोगों को लूटता ( था ) | २५ । वह गौ, ब्राह्मण आदि जीवों की बहुत हिंसा करता ( था ) | ऐसा करते हुए, एक समय वन में दावाग्नि लग गयी | २६ | ( उस समय ) कंटक घर पर नहीं था । दैव की इच्छा से (ही) ऐसी बात हो गयी तब उसके  • मुझे ( कि) उसके माता-पिता, स्त्री सव दावाग्नि में जल मरे । २७ । कंटक ने आकर वहाँ देखा, तो मन में वह अति दुःख को प्राप्त हो गया । अब ऐसी गिरस्ती नहीं मिलेगी ' - ऐसा कहते हुए वह अपार रोया । २८ । अनन्तर वह दूर दूसरे देश में गया - केरल देश में आ गया |


देश के ( प्रमुख ) नगर का जो राजा था, वह उस दिन मृत्यु को प्राप्त • उस हो गया । २९ । उस राजा के ( कोई ) सन्तान नहीं थी ( अतः ) तब प्रधान ने न्याय-नीति का विचार किया । 

( उसके अनुसार ) उसने तभी एक हथिनी को सजा दिया और उसकी सूंड़ में पुष्पमाला ( धरवा ) दी | ३० । जिसके गले में वह माला डालेगी, वह उस नगर का राजा होगा | उस समय वहाँ ( वह कंटक नामक ) चंडाल आ गया; उसके गले में ( उस हथिनी ने) माला पहना दी । ३१ । ( लोग ) उसे राजद्वार ( तक ) ले गये और उन्होंने उसे राज्य का अधिकारी बना दिया। उसने राजा का कर्तव्य कर्म किया और उसने अतिशय राज-सम्पत्ति प्राप्त की । ३२ । उसने छः वर्ष राज्य का भोग किया | उस महा अधर्मी ( व्यक्ति ) ने कपट- पूर्वक कार्य किया । एक समय कंटक राजसेना सहित शिकार के लिए चला गया । ३३ । ( तब ) उस बन में उसके अपने वतन के लोग तीर्थ यात्रा करते हुए आ गये। उन्होंने उसे वन में पहचान लिया ( और पूछा ) - ' अरे कंटक ! तू यहाँ कहाँ से आया ? ' । ३४ । यह सुनकर वह मन में लज्जा को प्राप्त हो गया । उसका सैन्य तथा प्रधान विस्मित हैं ( थे ) । अनन्तर प्रधान ने उन्हें एकान्त में ले जाकर पूछा - तो उसका भ्रम भंग ( दूर ) हो गया । ३५ | ( उन्होंने कहा ) – ' वह हमारे गाँव का चण्डाल है, (जो) यहाँ राजा होकर बैठा है ।' मंत्री ने ( यह ) सुनकर कंटक को दंड ही दिया और उसे लूट लिया । ३६ । वहाँ से उन्होंने उस चण्डाल को मार भगाया और वह ( प्रधान ) तत्काल नगर में आ गया । सब नर-नारी भ्रष्ट हो गये (थे ), वे हाहाकार करते थे । ३७ । समस्त प्रजा इकट्ठा हो गयी और ( उन लोगों ने ) धर्मशास्त्र का निर्णय नगर की ( खोज) निकाल लिया । ( तदनुसार ) प्रजा ने अग्नि प्रवेश किया । नगर में कोई बाक़ी न रहा । ३८ । ( तदनन्तर ) कंटक ( जब ) नगर में आया (तो) उसे प्रजा भस्माकार हुई दिखायी दी । वे सब मेरे कारण स्वयं जल गये; वह पाप मेरे सिर पर बैठा ( चढ़ा) | ( यह सोचकर ) उस समय लकड़ियों की चिता वनाकर उसमें वह जल ( मर) जाने के हेतु वैठ गया । ३९-४० । 1 इस समय एक चमत्कार हो गया । ईश्वर की माया बलवान होती है । जो पहले ऋषि ( गाधि ) की पत्नी थी, वह आकर दरवाजे में खड़ी रही । ४१ । उसने पुकार कर ( उन्हें ) बुलाया (और पूछा ) -' हे स्वामी ! वहाँ से क्यों नहीं आ रहे हो ? रसोई बनाकर मैं ( तुम्हारी) वाट जोहती हूँ । ( तुमको ) देर हुई तो चिंता हो गयी । ४२ । बहुत समय से यहाँ आये; क्या गंगा में नहा रहे हो ?' ऐसा सुनने पर ( गाधि का ) मन चकित हो गया । उसे आश्रम और स्त्री दिखायी दी । ४३ । मनमे पूर्व ( स्थिति की ) स्मृति हो आयी । उन्हें चिता और नगर वहाँ नहीं दिखायी दिया। उन्होंने स्वयं का आश्रम देखा, तो वे अत्यधिक भयभीत हो गये । ४४ । ( उन्होंने सोचा ) - अरे ! मैं (तो) ब्राह्मण ( के कुल में) अवतरित हूँ, निश्चय ही गौतम ऋषि का शिष्य हूँ । मैं भ्रष्ट तथा हिंसाचारी हुआ । ऐसा कहकर वे अतिशय शोक करने लगे । ४५ । तब उन्होंने भगवान् विष्णु का स्मरण किया है, उस समय श्रीहरि प्रकट हो गये। उन्होंने गाधि के मुख पर हाथ फेर दिया, तो उस (गाधि) को पूर्वज्ञान हो गया और वे अपने को सनाथ ( अनुभव करने लगे ) हो गये । ४६ । ( फिर ) उन्होंने श्रीहरि की बहुत स्तुति की, हाथ जोड़कर शब्दों का उच्चारण किया। उन्होंने ( अब ) माया का प्रताप जान लिया और अनन्तर वे स्वयं शुद्ध हो गये । ४७ । ( उन्होंने कहा-' हे नाथ ! तुम्हारी वह माया महा बलवती और विकारी है । बहुत दुस्तर तथा निर्दय है । हे देव मुरारि ! कृपा (दृष्टि) रखो । ४८ । वह हे स्वामी ! मैं तुम्हारी शरण में (आया ) हूँ । हे अन्तर्यामी ! ( अपनी ) माया का निवारण कर लो । ऐसा कहकर गाधि मुनि श्रीहरि के पाँव लगे । तव वैकुण्ठराय श्रीहरि हँस दिये । ४९ । उन्होंने ऋषि को अभयदान दिया और वे अन्तर्धान ( को प्राप्त ) हो गये । वशिष्ठ ऋषि कहते हैं- ' हे रघुराज ! सुनो । ऐसी तुम्हारी माया कही जाती है । ५० । वह अति दुर्जय है, वह नहीं जीती जाती है । तुम्हारी शरण में रहने से सुख होता है । वह (माया) है (तो) मिथ्या, पर वह महा बलवती है । वह महापुरुषों के अभिमान को छुड़ाती है । ५१ ।

वह महापुरुषों के अभिमान को छुड़ाती है । हरि की माया ऐसी वलवती है । इसलिए अभिमान को त्यागकर सव श्रीभगवान का भजन करें । ५२ ।


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