लक्ष्मण जी ने बहुत सी धनुहियाँ कब तोड़ी थी ?|बहु धनुहीं तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
लक्ष्मण जी ने बहुत सी धनुहियाँ कब तोड़ी थी ?
बहु धनुहीं तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
बालकाण्ड 270/6)
जब परशुराम जी क्षत्रियों का नाश कर रहे थे, उस समय परशुराम जी ने अनेक राजाओं के अनेक धनुष तथा तमाम देवताओं के धनुषों को लेकर एकत्रित किया, इनके बोझ से पृथ्वी और शेष जी बहुत परेशान हो गये। पृथ्वी ने माता और शेष जी पुत्र बनकर परशुराम जी के आश्रम को आये, क्योंकि पृथ्वी (माता) को तथा शेष जी को यह भय था कि यदि ये धनुष कहीं परशुराम जी की अनुपस्थिति में राक्षसों को मिल गये तो प्रलय मच ये जायेगी। पृथ्वी माता ने परशुराम जी से बड़े दुख के साथ कहा, भगवन्, यह बालक मेरा ने बहुत ही चंचल है, हम बहुत ही दुखित हैं। इस बालक की चंचलता के कारण इसे कोई शिष्य नहीं बनाता है। मैं बहुत से ऋषियों के पास भटकने के बाद आपके पास आयी हूँ। मुझे आशा है कि आप मेरे इस पुत्र को शिष्य रूप में ग्रहण करके इसके सभी अपराध सहकर इसे किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए, आप इसे अवश्य शिक्षा ग्रहण करायेंगे और हमें महान दुखों से बचा लेंगे। हम दोनों आपकी सेवा करते रहेंगे। परशुराम जी शेष जी के सम्मोहन के परिवेश में इतना अधिक विभोर हो गये थे कि इन्हें अपनी प्रवृत्ति का ख्याल भी न रहा, उन्होंने पृथ्वी माँ से बच्चे के सभी अपराध क्षमा करने का वचन दे दिया ।
एक दिन जब परशुराम जी बाहर गये थे, अवसर पाकर लक्ष्मण जी (शेष) ने सभी धनुष तोड़ डाले। जब परशुराम जी ने लौट कर देखा, तो उन्हें मन में तो क्रोध आया, परन्तु वचन की प्रतिबद्धता ने उन्हें क्रोध न करने के लिए मजबूर कर रखा था। उन्होंने क्रोध करने के बजाय आशीर्वाद देकर माता और पुत्र को विदा कर दिया। जाते हुए शेष जी उन्हें अपना वास्तविक रूप दिखाकर भविष्य में शंकर धनुष भंग और तब फिर आपस में सम्भाषण की बात बताकर वहीं अन्तर्धान हो गये। आज लक्ष्मण जी परशुराम जी को उन्हीं पुरानी बातों को याद दिला रहे है।' यहाँ पाठक यह ध्यान दें कि उस समय परशुराम जी ने मात्र वचनबद्धता के कारण लक्ष्मण पर क्रोध नहीं किया था और आज परशुराम जी किसी भी (वचन में बँधे नहीं हैं।
परशुराम जी की जनेऊ देखकर लक्ष्मण जी अपना क्रोध क्यों रोक लेते थे? :
भृगु सुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।
परशुराम जी नौ गुणों (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता) से सम्पन्न थे। परशुराम जी की जनेऊ में नौ गाँठे थीं, जिनमें से 8 गाँठों में क्रमशः सोम, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, राहु, केतु तथा वायु आदि आठ देवता तथा नवीं गाँठ में 33 करोड़ देवताओं का हमेशा निवास रहता था। तथा उनकी जनेऊ में जो अन्तिम तीन गाँठे थीं उनमें क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी का भी निवास था।
“यज्ञोपवीत नौ गुणों का होता है। यह शरीर अथर्ववेद के अनुसार अष्टचक्रा नवद्वारा है। अतः नवगुण नवद्वार का प्रतीक है। यज्ञोपवीत की अन्तिम ग्रन्थि ब्रह्म ग्रन्थि होती 4
लक्ष्मण जी को जितनी चिन्ता परशुराम जी के भृगुसुत होने की थी, कि जिन भृगु ने ने भगवान विष्णु के चरणों में (कहीं-2 वक्ष) लात मार दी थी, ये उन्हीं के सुत हैं, उससे अधिक चिन्ता परशुराम जी के जनेऊ में निवास करने वाले देवताओं की ओर त्रिदेवों की तथा परशुराम जी के नवों गुणों की थी। जिनका तिरस्कार अथवा अपमान करना लक्ष्मण जी के लिए सम्भव नहीं था। यदि मात्र परशुराम जी की ही बात होती तो शायद लक्ष्मण जी गम न खाते । परन्तु उनसे अधिक चिन्ता उन देवताओं की थी, कि कहीं उनका अपमान मुझसे न हो जाये | इसी भय वश वे अपने क्रोध को रोक लेते थे।
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